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________________ १२६ नम्न निवेदन देवदर्शनके अधिकारी हैं तब फिर हरिजन मन्दिर प्रवेश विलपर इतनी आपत्ति क्यों ? चरणानुयोगके अनुकूल मद्य मांस मधुका त्याग होना चाहिये तब वे भी इस त्यागके पात्र हैं तथा जब गुरुकी श्रद्धाके पात्र हैं तब क्या वे हरिजन आपकी भी वन्दनाके पात्र नहीं हो सकते हैं ? यदि वे श्रद्धालु जहॉपर आप तत्त्वोपदेश कर रहे हैं आकर उपदेशको श्रवण करें तथा आपकी वन्दना करें तो क्या नहीं आने देंगे? अतः यह सिद्ध होता है कि हरिजन भी देवदर्शनके पात्र हो सकते हैं तब हरिजन मन्दिर प्रवेश विलपर इतनी आपत्ति क्यों ? ___धर्म तो जीवकी निज परिणति है। उसका विकास संज्ञी पञ्चेन्द्रियमे होता है। वह चारों गतिवाला जीव हो सकता है। वहाँ पर यह नहीं है कि अमुक व्यक्ति ही उसका पात्र है। यह अवश्य है कि भव्य, पर्याप्तक, सज्ञी जागृदवस्थावाला जीव होना चाहिये । हरिजनोंमें भी ऐसे जीव हा सकते हैं। हरिजनोंमें उत्पत्ति होनेसे वह इसका पात्र नहीं यह कोई नहीं कह सकता। वे निन्द्य कार्य करते हैं इससे सम्यग्दर्शनके पान न हों यह कोई नियामक कारण नहीं ? क्यों कि उच्च गोत्रवाले भी प्रातःकाल शौचादि क्रिया करते हैं तथा यह कहो कि उस कार्यमें हिंसा वहत होती हैं इससे वे सम्यग्दर्शनादिके पात्र नहीं तव मिलवालोंके जो हिंसा होती है-हजारों मन चमड़ा और चर्बीका उपयोग होता है तदतेक्षा तो उनकी हिसा अल्प ही है, अतः हिंसाके कारण वे दर्शनके पान नहीं यह कहना उचित नहीं । यदि यह कहा जाय कि भोजनादिकी अशुद्धताके कारण वे दर्शनके पात्र नहीं तो प्रायः इस समय बहुत ही कम ऐसे मनुष्य मिलेंगे जो शुद्ध भोजन करते हैं, अतः यह निर्णय समुचित प्रतीत होता है कि जो मनुष्य धर्मकी श्रद्धा रखता हो वह भी जिनदेवके दर्शनका पात्र हो सकता है । यह
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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