SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पावन दशलक्षण पर्व १२५ और लोभ उसकी विकृत परिणति है । जब कि एक गुणकी एक समयमे एक ही पर्याय होती है तब लोभके रहते हुए शौच रूप परिणति नहीं हो सकती । पञ्चम दिन सत्यधर्मका व्याख्यान था । वास्तवमे सत्यधर्मं तो वह है जहाँ परका लेश नहीं । जहाँ परमे आत्मबुद्धि है वहां धर्मका लेश नहीं । आत्माका स्वभाव भगवानने ज्ञान और दर्शन कहा है । अर्थात् उसका स्वभाव जानना और देखना बतलाया है । चेतना आत्माका लक्षण है । चेतनाका द्विविध परिणाम होता है । उनमेसे स्वपर व्यवसायात्मक परिणामको ज्ञान कहते हैं और केवल स्वव्यवसायात्मक परिणामको दर्शन कहते हैं । मोहके वशीभूत हुआ प्राणी अपने ज्ञान दर्शन रूप स्वभावसे विमुख हो जाता है। यही असत्य धर्म है । स्वभाव विमुख प्राणी के वचन ही अन्यथा निकलते हैं। पट दिन संयम धर्मका दिवस था । संयम धर्म यह शिक्षा देता है कि सर्व तरफसे वृत्तिको संकोच करो । जहाँ पर पदार्थों में दृष्टि गई उनको अपनाया वहाँ संयम गुणका घात हुआ । मेरा तो यह विश्वास है कि हम केवल संयमको जानते हैं पर उसके अनुभवसे शून्य हैं, अन्यथा जैसी हमारी विपयोंमे प्रवृत्ति है वैसी संयम में क्यों न होती ? बाह्यमे संयम धर लेनेपर भी अन्तरङ्ग उन्हीं विषय कषायोंकी ओर आकृष्ट क्यों होता ? सप्तम दिन तपका व्याख्यान था । अनादिसे आत्मामें जो पर पदार्थोंकी इच्छा उत्पन्न हो रही है वही तप धर्ममे बाधक है । आत्माका स्वभाव ज्ञान- दर्शन है, परन्तु मोहजन्य इच्छाके कारण इसके सामने जो आता है उसे यह अपना मान लेता है। जहाँ किसी पदार्थमें अपनत्व बुद्धि हुई वहीं उसकी रक्षाका भाव उत्पन्न हो जाता
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy