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________________ हरिजन मन्दिर प्रवेश अध्यात्म की ओर उसकी दृष्टि थी । यदि वह व्यवहारकी तरफ कुछ भी दृष्टि देता तो अच्छे अच्छे उसके अनुयायी हो जाते । फिर भी उसने लाखो मनुष्योंको मद्य मास छुड़वा दिया और लाखों आदमियोको सरल बना दिया। आज हम लोग धर्म जो कि प्राणीमात्रका है उसके विकाशमे बाधक वन रहे हैं । यद्यपि धर्मका विकाश आत्मामें ही होता है और आत्मा ही उसका उत्पादक है तथा आत्मा ही उसका घातक है । जिस समय आत्मा परसे भिन्न अपने स्वरूपको जानता है उसी समय परमे निजत्वकी कल्पनाको त्याग देता है और उसके त्यागसे उसकी रक्षा के लिये अनुकूल पदार्थोंके संचयका उद्यम स्वयमेव नहीं होता तथा प्रतिकूल पदार्थों के निग्रह करनेकी चेष्टा स्वयमेव शान्त हो जाती है । किन्तु व्यवहार मैं जिन महात्माओंने आत्मज्ञानकी पूर्णता प्राप्त की उनके स्मरणके अर्थ जो मन्दिर आदि आयतन हैं उनकी आवश्यकता जघन्य अवस्थामे आवश्यक है, अतः मानवजाति मन्दिर आदिका निर्माण करती है । उस मन्दिरमे वही जा सकता है जो स्वच्छ हो, क्योंकि मन्दिर एक पवित्र स्थान है और उसमें पवित्र आत्माकी स्थापना रहती है । अब यहाँ पर यह विचारना है कि पवित्रता उभयविध है — एक तो यह कि आत्मा पञ्च पापोका परित्यागी हो तथा जिसके दर्शन करने जावे उसमे श्रद्धा हो । यह तो अन्तःकरणकी शुद्धता होनी चाहिये और दूसरी बाह्यमे शरीर शुद्ध हो, स्वच्छ वस्त्रादिक हो । जिसके यह उभयविध शुद्धता हो वह मनुष्य उस मन्दिरमें प्रतिष्ठापित देवके दर्शनका अधिकारी हो । मूर्तिपूजाका अधिकारी वही हो जो उस मन्दिरके अधिकारियों द्वारा निर्मित नियमोंका पालन करे । यथार्थमें जो प्रतिमा है उसमें जिस देवकी स्थापना है वह तो साक्षात् है नहीं, केवल स्थापना है । उस देवपर किसी जातिविशेष ११६
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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