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________________ दिल्लीका परिकर ११३ मे विलीन हो गया। पं० मक्खनलालजीने भी प्रयत्ल किया पर कोई प्रभाव जनतापर न पड़ा। इसके अनन्तर आरासे पधारी हुई चन्दावाईने भी अपनी मधुर ध्वनिसे उपदेश दिया, परन्तु जनतामे सर्व प्रयत्न विलीन हो गये। अन्तमे हमारा प्रयत्न भी असफल ही रहा । लोग जिस भावनाको लेकर धर्मायतनोंमे उपस्थित होते हैं उसकी पूर्तिकी बात तो भूल जाते हैं और वाह्य वातावरणमें इतने निमग्न हो जाते हैं कि सारकी कोई वस्तु उनके हाथ नहीं पड़ती। श्रीराजकृष्णके भाई हरिचन्द्रजीके यहाँ एक दिन आहार करनेके लिये गये । यहीपर श्रीलाला सरदारीमल्लजी भी आये । आपने महिलाश्रम बननेपर पूर्ण बल दिया। मैंने कहा कि भैया ! दिल्लीमें कमी किस बातकी है ? महिलाश्रम बन जाय तो महिलाओंका भला ही होगा। वस्तुतः धर्मका तत्व सरल है, किन्तु अन्तरङ्गमे माया न होना चाहिये। क्षयोपशमज्ञानका होना कठिन बात नहीं, किन्तु सम्यरज्ञान होना अति कठिन है। इसका मूल कारण यह है जो हम अनात्मीय पदार्थोंमे आत्मीय बुद्धि मान रहे हैं। आज तक न कोई किसीका हुआ, न है और न होगा। फिर भी बलात् माननेमें हम त्रुटि नहीं करते । एक दिन नये मन्दिरमे गये। यह मन्दिर धर्मपुरामें है। इसमे स्फटिक मणिकी कई मूर्तियाँ रम्य हैं। बाहुबली स्वामीकी मूर्ति अति सुन्दर है । दर्शन करनेसे चित्तमें शान्ति आ जाती है। यथार्थमे शान्तिका कारण तो आभ्यन्तरमें है, बाह्य तो निमित्तमान है। निमित्त कारण बलात् कार्य नहीं कराता, किन्तु यदि तुम करना चाहो तो वह सहकारी हो जाता है । _धर्मपुराके मन्दिरमे तु० पूर्णसागरजीका प्रवचन हुआ। अष्ट मूलगुणधारण और सप्त व्यसनके त्यागपर बल था। नगरोंकी अपेक्षा महान् नगरमे विशेष प्रभावना होती है, परन्तु उस प्रभावना
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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