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________________ दिल्लीकी और -६७ वासनाओमें सबसे बड़ी वासना लोकैपणा है जिसमे सिवाय संक्लेश के कुछ नहीं। दूसरे दिन प्रातःकाल कन्या पाठशालाका निरीक्षण किया। द्रव्य की पुष्क्लताके अभावमे यथायोग्य व्यवस्था नहीं। यहाँ पर २०० घर जैनियोंके हैं, परन्तु उनमे परस्पर प्रेम नहीं और संघटन होना भी असंभव सा है। मान कषायकी तीव्रताके कारण लोग एक दसरेको कुछ नहीं समझते। दूसरेके साथ नम्रताका भाव पानेमे अपना अपमान समझते हैं यही सर्वत्र पारस्परिक वैमनस्यका कारण होता है । यदि हृदयसे मानकी तीव्रता निकल जावे और एक दूसरेके प्रति आत्मीयभाव हो जाय तो वैमनस्य मिटने में क्या देर लगेगी ? जहाँ वैमनस्य नहीं, एक दूसरेके प्रति मत्सरभाव नहीं वहाँ बड़ेसे बड़े काम अनायास सिद्ध हो जाते हैं वा द्रव्यकी कभी कमी नहीं रहती। यह वैमनस्यका रोग सर्वत्र है और सर्वत्र ही इसका यही एक निदान है। इसे मिटानेकी क्षमता सबमे नहीं। वही मिटा सकता है जो स्वयं कषायजन्य कलुषतासे परे हो। आषाढ़ सुदि २ सं० २००६ को प्रातः ५ बजे चलकर बड़ेगाँव क्षेत्र पर आ गये। यहाँ पर १ विशाल मन्दिर है और मन्दिरके चारों कोनों पर ४ छोटे मन्दिर हैं। उनमे भी प्रतिमाएँ विराजमान हैं। यहाँ पर श्री पारसदासजी ब्रह्मचारी रहते हैं। पण्डित दयामलालजीका भी यहाँ निवास है। आज वाहरसे १८० यात्री आ गये दिल्लीसे राजकृष्णजी, उनकी पत्नी तथा श्रीमान् जुगल किशोरजी और घड़ीवालोंके बालक भी आये। मध्यान्ह वाद वाबाजीका प्रवचन हुआ। श्री पं० जुगलकिशोरजीसे बातचीत हुई। १० लाख रुपयेके सद्भावमें प्राचीन संस्कृत साहित्यका उद्धार प्रारम्भ हो सकता है। दूसरे दिन वड़ेगाँवसे १ मील चलकर नहर पर आये
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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