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________________ मेरी जीवन गाया आदर नहीं करते । यदि वे अपने ज्ञानका आदर स्वयं करें तो संसार स्वयं मागे पर आ जावे अथवा न आवे, स्वयं तो कल्याण पर आ जावेगे। ज्ञानके आदरसे अभिप्राय तदनुकूल आचरण है। तदनुकूल आचरणके बिना ज्ञानकी प्रतिष्ठा ही क्या है ? मुझे तो अन्तरङ्गसे लगता है कि वोलना न पड़े, अपनी परिणतिको निर्मल बनानेका प्रयत्न करूँ इसीमें सार दिखता है। संसारमे ऐसा कोई शक्ति-शालि पुरुष नहीं जो जगतकी सुधारणा कर सके। बड़े बड़े पुरुप हो गये। वे भी संसारकी गुत्थी सुलझा न सके तव अल्पज्ञानी इसकी चेष्टा करे यह महती दुर्बोधता है। यदि कल्याणकी इच्छा है तो अपने भावोंको सुधारा जाय । इच्छाको रोकना ही सुखका कारण है । सुख कोई अन्य पदार्थ नहीं जिसके अर्थ किसीसे याचना की जावे। जैसे कुम्भकार घटको चाहता है और यह जानता है कि घटकी पर्याय सिट्टीमे होती है। वह निरन्तर १ ढेर मिट्टी का घरमें रखता है। यदि वह मिट्टीकी पूजा करने लगे तथा जप करने लगे कि घट वन जावे तथा घटानुकूल व्यापार न करे तो क्या घट बन जावेगा ? इसी प्रकार सुख आत्माका गुण है और आत्मामें सदा विद्यमान है, परन्तु वर्तमानमे मोहके कारण उसम दुःखरूप परिणमन हो रहा है। यदि यह प्राणी सुख प्रामिक अनुकूल चेष्टा न करे-आत्मासे मोह परिणतिको विघटित न करे तो क्या अपने आप सुख गुण प्रकट हो जावेगा? ___ अपाढ़ वदी ९ सं० २००६ को श्रीजुल्लक चिदानन्दजी तथा जु० पूर्णसागरजीके केशलुञ्च हुए। दृश्य देखनेके लिये अपार भाड एकत्रित हुई। यद्यपि केशलुञ्च एक क्रिया है और इसको मुनि तथा ऐलक करते हैं एवं यह एकान्तमें होता है. किन्तु अब म प्रभावनाका अंग बना दिया है, सहलों मनुप्य इसमे इकट्ट हा जाते हैं तथा जयकारके नारे लगाते हैं। पञ्चम काल है, मनुष्य
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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