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________________ दिल्लीकी ओर है, इसलिये यह लीला वहीं तक सीमित है " यह भाव वक्ता तथा श्रोताके हृदयमें आ जावे तो प्रवचनकी सार्थकता है । महावीरसे पं० धरणेन्द्रकुमारजी आये। उन्हींके यहाँ भोजन हुआ। आपने १ कपायप्राभृत भेंट किया तथा स्याद्वाद विद्यालय को ११) प्रदान किये। आपकी श्रद्धा धर्ममे उत्तम है। वास्तवमें श्रद्धा आत्माका अपूर्व गुण है। इसके होने पर सर्वगुण स्वयमेव सम्यक हो जाते हैं। इसकी महिमा अचिन्त्य है। इसके होने पर ज्ञान सम्यक् और मिथ्याचारित्र अविरत शब्दसे व्यवहृत होने लगता है। जेठ सुदी २ का प्रवचन बहुत शान्तिसे समाप्त हुआ। प्रकरण ब्रह्मचर्य व्रतका था। पर पदार्थसे भिन्न आत्माका निश्चय कर जो पर पदार्थों में राग द्वेपका त्याग कर देता है वही पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाला होता है । लौकिक मनुप्य केवल जननेन्द्रिय द्वारा विषयसेवनको ही ब्रह्मचर्यका घातक मानते हैं, परन्तु परमार्थसे सर्व इन्द्रिय द्वारा जो विषय सेवनकी इच्छा है वह सव ब्रह्मचर्यका घातक है । आज देहलीसे २० मनुष्य आये। सबका यही आग्रह था कि दिल्ली चलिये । चातुर्मासका अवसर निकट था तथा उसके उपयुक्त दिल्ली ही स्थान था, इसलिये हमने कह दिया कि दिल्लीकी ओर ही तो चल रहे हैं। कांदलामें एक दिन पल्टूरामजीके यहाँ भोजन हुआ । आप बहुत ही सज्जन तथा तत्त्वज्ञानी हैं। आप स्थानकवासी सम्प्रदायके हैं । आपका हृदय विशाल है, परन्तु साथमें कुछ आग्रह भी है। स्थानकवासी सम्प्रदायका कुछ व्यामोह है। यद्यपि आप निग्रन्थ पदको ही मुख्य मानते हैं फिर भी वस्त्रधारीको भी मुनि माननेमे संकोच नहीं करते । दिगम्बर संप्रदायमे तो यह अकाट्य मान्यता है कि बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका जहाँ त्याग है वहीं मुनि पद हो सकता है । एक दिन यहाँ ग्रामके सबसे बड़े
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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