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________________ ८४ मेरी जीवन गाथा ज्ञानसे होती है, ज्ञानका मूल कारण आगमज्ञान है और आगमज्ञानका कारण विद्याका अभ्यास है । दूसरे दिन बड़े मन्दिरमें प्रवचन हुआ। मनुष्य संख्या पुष्कल थी। परन्तु हमको इतनी योग्यता नहीं कि उन्हें प्रसन्न कर सकते । केवल १ घण्टा समय गया । हम रूढिके गुलाम हैं और उसीकी पूर्ति करना चाहते हैं। बहुत आदमी जिसमे प्रसन्न हों उसीमे प्रसन्नता मानना हमारा कार्य है, परन्तु धर्मका स्वरूप तो निर्मल आत्माकी परिणति है। उसकी यथार्थता मोह राग द्वेषके अभावमे ही है । यदि राग-द्वपकी प्रचुरता है तो आत्माका कल्याण होना असम्भव है। प्रवचनोंमे जैन लोगों के अतिरिक्त अन्य लोग भी आते हैं। परन्तु उन्हे उनकी भाषामे तत्त्वका उपदेश नहीं होता, अतः वे लोग उपदेशके फलसे वञ्चित रह जाते हैं। जैन लोग स्वयं इसकी चेष्टा नहीं करते, केवल ऊपरी व्यवहारमें अपना समय व्यय कर देते हैं। एक दिन प्रकाशचन्द्रजी रईसके यहाँ भोजन हुआ। आपने स्याद्वाद विद्यालयको १०.०) दिये। भोजन भी निरन्तराय हुआ । प्रकाशचन्द्र व उनकी पत्नी दोनों योग्य हैं। एक दिन चतुरसेनके यहाँ भोजन हुआ। आपने भी स्याद्वाद विद्यालयको ५०१) प्रदान किये तथा महेन्द्रने भी १००१) उक्त विद्यालयको दिये। कुछ लोगोंने देनेका वचन दिया। यह सब हुआ, परन्तु यह सुनकर बहुत खेद हुआ कि नानौता ग्राममे कई जैनी भाई मदिरा पान करते हैं तथा कडे वेश्यागामी हैं। त्यागी लोगोंको शुद्ध भोजन मिलना प्रायः कठिन है। जुल्लक पूर्णसागरजी लोगोंके सुधारका बहुत प्रयास करते हैं। बहुत मनुष्य अष्टमूलगुणका नियम लेते हैं, किन्तु जानते कुछ नहीं। इससे व्रतका निर्वाह होना कठिनसा प्रतीत होता है । नुस प्रान्तमे सदाचारकी त्रुटि महती है । नानौताम ४ दिन लग गये।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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