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________________ [८] निरन्तर करो। १५-७३१. आत्मा के सहज स्वभावमय ज्ञानदर्शनभाव से राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि विभावों को पृथक् समझना भेदविज्ञान है। १६-७३२. जहां क्रोधादि भाव ही आत्मा के स्वयं नहीं है फिर शरीर, पुत्र, मित्र, धन, मकान क्या आत्मा के कुछ हो सकते ? यथार्थ ज्ञान को अपनावो, वही तुम्हारा उद्धार करेगा। १७-७३३. प्रतिष्ठा, यश, अपयश, सन्मान, अपमान आदि भी क्यो आत्मा के हैं ? सब जुदे हैं उनका व्यामोह छोह, सहज भाव को ही अपनायो।। १८-७५६. ज्ञानी के माप नहीं अर्थात् ज्ञानी पुरुप की क्रिया की दिशा, भावना, निर्मलता आदि की अवधि समझना बड़ा कठिन है, उसकी लीला को परमात्मा जाने व वही जाने। म ॐ ॐ
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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