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________________ [ २४१ ] कोई बिगाड़ नहीं होता। ३-५२३. संसरणशील आत्मा काम, क्रोध, मान, माया, तृप्णा, मात्सर्य आदि विकारों से स्वयं आकुलित वनकर शान्ति का घात कर स्वयं हिंसक बनरहे हैं और उन्हीं कपायों की वेदना न सह सकने के कारण जो उनकी प्रवृत्ति होती है उससे अन्य जीवों को बाधा उत्पन्न होने के कारण व्यवहार में भी हिंसक बन रहे हैं इस हिंसा से स्वयं का महान् अकल्याण है अतः सुख चाहते हो तो परमार्थ अहिंसा का आश्रय लो । ४-८०८. सम्प्रदाय के नाम ही अहिंसा तत्व को सिद्ध करते हैं फिर भी सम्प्रदाय के नाम पर हिंसा की जावे तो महाअंधेर है । जैसे-हिंदू-हि-हिंसा से दू-दूर. सिक्व (शिप्य) यात्मतत्त्व सिखाये जाने योग्य । ईसाई (ईशाई) आत्मतत्त्व के ईशपन (मालिकाई) का उद्योगी। जैन-हिंसादिक भाव को जीतने का उद्यमी । मुसलमान मुसले ईमान-सत्यतत्त्व का दृढ़व्रती । पार्थी (पारसी) पार्व-पासवाली वस्तु वह है आत्मज्योति जो कि
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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