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________________ [ २११ । १-४६०. तुम यदि पशु-या पक्षी वगैरह जिस किसी पर्याय में होते तो वहीं अपनी वासना बनाते इस पर्याय की वासना की गंध भी नहीं होती, वासना अध्र व है...तुम तो ज्ञानमात्र हो...वासनारहित हो, वासना से मुख मोड़ो; यदि नहीं मोड़ पाते तो एक उपाय यह है कि कल्पना करो-मैं अन्य किमी भव में हो तब तो यह कुछ भी नहीं हैं। .. १०-४७३. आत्मन् ! तुम्हारी जो भावी है, होगा; तुम्हें उपयोग को विशेष व्यायाम कराना उचित नहीं अथवा वह व्यायाम भी होगा तुम्हें रुचि करना उचित नहीं । ११-४६७. जब तुम विपदा या अपमान के अनुभव में व्या कुल हो रहे हो तब तुम इस बात को सोचो कि इस समय तुन हो कहाँ ? स्वाभावदृष्टि में या बाहर ? स्वभावदृष्टि में तो हो नहीं...वह तो परमसुख का स्थान है ! और वाह्य दृष्टि में तो ऐसा होता ही है, अनहोनी मत समझो, यदि इस दुख से बचना चाहते हो तो पर की उपेक्षा करके वाह्यदृष्टि से हटो। १२-५६४. नामवरी के लिये बढ़ने वाले विशिष्ट त्यागिजनों
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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