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________________ [ १६० ] कार्य के करने में, प्रशंसा में, किसी के द्वारा की गई सेवा में, किसी के मधुर वचनों में भले ही सुखाभास हो परन्तु पूर्ण श्रद्धा व भावना करो - कि लेश भी राग आत्मा का हित है । ॐ ॐ ११ - २५१. प्रयोजन न होने पर भी अपनी प्रकृति से विरुद्ध अन्यकृत कार्य देखा नहीं जाता, यह द्व ेष भी रागमूलक है क्योंकि उसे नैमित्तिक प्रकृति ( वैभाविक परिणति ) से राग हुआ है; यदि उस द्वेषज दुःख से बचना चाहते हो तो नैमित्तिक परिणति रूप अपनी प्रकृति को हेय मानकर उससे राग छोड़ो । ॐ १२- १२३. कर्म के फल में राग करने वाले को कर्म फल देवेगा ही अतः मुमुक्षु को कर्म के फल में राग नहीं करना चाहिये । 5 ॐ 5 १३ - १०६. उतना भयंकर द्वेष नहीं जितना भयंकर राग है । द्व ेष तो ऊपरी चोट से आघात करता परन्तु राग भीतरी और मुदी चोट से आघात करता है, द्व ेष भी
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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