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________________ [ १८० ] करना है, मानवधर्म में लौकिक उपकार की मुख्यता है और अात्मधर्म में परमार्थ निर्मलता की मुख्यता है, मानवधर्म पुण्यवंधक है और आत्मधर्म मुक्तिसाधक है, अतः आत्मधर्म परमधर्म है। ४-६४४. धर्म ही आत्मा का शरण है किसी भी अवस्था में (सुख की या दुःख की अवस्था में) इसे मत भूलो। ५-८१३. जो बिगड़ी हालत पर साथ दे वही सच्चा मित्र है. अच्छी हालत में तो सभी मित्र से हो जाते हैं। वास्तव में तो धर्म ही मित्र है। ६-८१७. दूसरों को धर्म धारण करा देना तुम्हारे वश की बात नहीं; खुद धर्मधारण करना तरे वश को बात है। जो तेरे वश की उत्तम बात है उसे करने में देर मत कर । ७-८५१. जिसका चित्त धर्म में नहीं वह मृतक हो तो है, न उससे स्व को लाभ न उससे पर को लाभ । ---६६. धर्म-धर्म क्या किसी स्थान विशेष पर है ?
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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