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________________ [ १७० ] कारी कार्य में सहयोग देने लगो, पर बेकार कभी मत वैठो। ७-८०६.पुरुषार्थ का अर्थ ही यह कहता है जो आत्मा का हित रूप परिणमन है वह पुरुषार्थ है; पुरुष अर्थात् आत्मा का अर्थ अर्थात् प्रयोजन (हित)। इससे सिद्ध है--कि लौकिक कार्यों का प्रयोग यथार्थ पुरुषार्थ नहीं है। ८-८०७. कोई उद्योग न करना हो शत्रु है; अनुद्योगी सुख शांति से पश्चित रहता है। 4 ॐ ॥ १-८१०. तुम अपने को जानते हो न ! तथा जैसा तुमने अपने स्वभाव को समझा वैसे जो पवित्र हो चुके हैं उन्हें भी समझते हो न !...यदि हां...तो अब तुम कुछ भी न जाना और कोई तुम्हें भी न जाने; तेरी कोई हानि नहीं; बस, जैसा समझा वैसा होने की धुन में लगो अर्थात् पुरुषार्थ करो। १०-८४. पुरुषार्थ बिना कोई जीव एक क्षण नहीं रहता चाहे सीधा पुरुषार्थ करे या उल्टा, क्योंकि पुरुषाय याने
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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