SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १३६ ] २६ आत्मज्ञान १-१६६. हे प्रभो ! मुझे अनन्त ज्ञान की तृष्णा नहीं, किन्तु जिस आत्मज्ञान के बिना मैं तृष्णावी हो रहा हूँ-तृष्णा से दूर रहने के अर्थ मैं आत्मज्ञान (अपने ज्ञान) को ही चाहता हूँ। प्र ॐ ॐ २-२०१. ज्ञानी जीव प्रत्येक पदार्थ से हित को शिक्षा ग्रहण करता रहता और अज्ञानी जीव प्रत्येक पदार्थ में चाहे वे साधु हों या असाधु हो--ऐसी कल्पनायें करता जिसमें उसका अहित हो। ३-२१३. कर्म का भय उनके होता जो कर्म का फल (संपदा या सांसारिक सुख) चाहते हैं व पर पदार्थ की परिणति को विपदा समझते हैं, ज्ञानी जीव के ये दोनों बातें नहीं फिर उनका कर्म क्या करेगा ? ४-२३८. जो ज्ञान विश्व की कीमत करता है, उस ज्ञान की
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy