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________________ [ १२४ ] ६ - ८०१. आत्मा के विभाव का लोभ होने से लोभी होता; वाह्यवस्तु के लोभ का व्यवहार करने वाले के विभाव का लोभ है ही। जिसके विभाव को अपनाने का लोभ नहीं उसे वाह्यवस्तु का लोभ नहीं होता तथा यथार्थ निर्लोभ भी हो जाता । ॐॐ 5 ७-८१८, लोभ बहुत बुरी आपत्ति है, धन कमा कर व पाकर भी जिनके तृष्णा व लोभ रहता है उनकी दुर्गति होती है; इससे अच्छा तो यह है - जो धन ही न मिले, यदि धन न होता, तो संभवतः लोभ का पङ्क तो न लगता, दुर्गति तो न होती । · 卐 ॐ ॐ ८- १८६. दीन वही है जो सांसारिक सुख का लोभी हो, श्रात्मसुख का लोभी तो सांसारिक सुख दुख के अभाव का लोभी है अर्थात् लोभ के प्रभाव का लोभी है अतः वह लोभी भी नहीं, दीन भी नहीं । ॐ 卐 1 ६-८७२. लोभी पुरुष लौकिक प्रयोजन के लिये (जिसमें आत्मा का बिगाड़ ही है) पर के मुख को ही देखता रहता है; अच्छा बताओ जो टुकड़ों के लिये पर के मुख के
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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