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________________ १५० ] जैन साहित्य संशोधक. [ खंड २ ४. पुष्पदन्तने धारा नरेश द्वारा मान्यखेट के लूटे जाने का उल्लेख किया है। शक सं० ८९४ के लगभग धारा के परमार राजा श्रीहर्ष द्वारा मान्यखेट के लूटे जाने का पता चलता है । इस प्रकार इन ऐतिहासिक तथ्यों के मिलान से इसमें बहुत कम सन्देह रह जाता है कि पुष्पदन्तने अपने काव्यों की रचना मान्यखेट के राष्ट्रकूट वंशी राजा कृष्णराज तृतीय के समय में की थी, जिन के अभी तक, जैसा कि हम ऊपर बता आये हैं, शक सं० ८६१ से लगाकर ८८१ तक के उल्लेख मिले हैं। यह राजा जैनियों का बड़ा भक्त था व बड़ा प्रतापी और बलवान् भी था । सोमदेवने उसे पांड्य, सिंहल, चोल, चरम, आदि प्रदेशों का विजेता कहा है। शिलालेखों से भी सिद्ध है कि उसने चोड़ मण्डल के प्रबल राजा को परास्त कर वहां राष्ट्रकूटाधिपत्य स्थापित किया था । उसने गंगराजा ' राचमल' को पराजित कर वहां की गद्दीपर भूतराय' को बैठाया था । ये ही 'भूतराय ' चौड़युद्ध में उनके सहायक हुए थे और इन्हीं द्वारा चोढ़ राजा का मस्तक काटा गया था । सम्भव है कि इसी प्रताप के कारण उन्होंने 'भैरव नरेन्द' की उपाधि भी प्राप्त कर ली हो, जिसका कि उल्लेख पुष्पदन्तन अपने काव्य में किया है । या स्वयं पुष्पदन्तने ही उनके लिये उक्त 'विरुद' निर्धारित करलिया हो । कविराजों को ऐसी स्वतंत्रता रहती है । 'शुभतुंग कृष्णराज प्रथम का उपनाम अनुमान किया जाता है । ब्रह्मनमिदत्तने इस राजा का इसी पद से उल्लेख किया है" । उसी का 'मल्लिषेण प्रशस्ति' में 'साहसतुंग' नाम पाया जाता है "। पर सम्भव है कि ये भी वल्लभराय के समान राष्ट्रकूट नरेशों के सामान्य ' विरुद' थे । देवली के ताम्रपत्रों से यही बात सिद्ध होती हैं। यह भी हो सकता है कि शुभतुंग व साहसतुंग इस वंश के खास २ प्रतापी नरेशों की उपाधि रही हो। हम देख चुके हैं कि मान्यखेट की लूटमार से कुछ पूर्व ही कृष्णराज की मृत्यु हो चुकी थी क्योंकि उस लूटमार के समय उनके उत्तराधिकारी 'खोट्टिगदेव' सिंहासन पर थे । यदि इसी लूटमार का उल्लेख पुष्पदन्तने किया है तो स्वयंसिद्ध है कि उन्होंने उत्तरपुराण का अन्तिम भाग, 'यशोधर चरित' और 'नागकुमार चरित' कृष्णराज के उत्तराधिकारियों के समय में लिखे थे । ये राजा 'कृष्णराज' के समान प्रतापशाली नहीं हुए । इनके समय में राष्ट्रकूट राज्य को अवनति प्रारम्भ हो गई थी । शायद इसी से हम उत्तरपुराण के अन्तिम भाग, यशोधर चरित और नागकुमार चरित में शुभतुंगराय व भैरवनरेन्द्र का उल्लेख नहीं पाते । यहां राजा का उल्लेख केवल 'वल्लभराय' से किया गया है जो राष्ट्रकूट नरेशों की साधारण 6 15 Duff's Chronology p. 89. २० ' अत्रैव भारते मान्यखेटाख्य नगरे वरे । राजाभूत् शुभतुंगाख्यस्तन्मंत्री पुरुषोत्तमः ' ॥ यहां शुभतुंग ( कृष्ण प्रथम ) को मान्यखेट का राजा कहा पर इतिहास कहता है कि इनके समय तक राष्ट्रकूट राजधानी वातापि में थी । मान्यखेट पुरी को अमोघवर्ष प्रथम ने सन् ८१४ ईस्वी में बसाया था । ( Deoli plates ). २१ " राजम् साहसतुंग सन्ति बहवः श्रतातपत्रा नृपाः किंतु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभाः । इत्यादि । २२ ‘'The Rashtra - Kutas are stated in it (Deoli plates) to have sprung from the Saty ki branch of Yadava race and to be known as 'Tunga ( Ins.in C. P. & Berar, p. 10 ) Aho ! Shrutgyanam
SR No.009880
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages176
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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