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________________ १४६] जैन साहित्य संशोधक. [खंड २ अपने आश्रयदाता भरत के पुत्र नन' व उनके 'कौण्डिन्य गोत्र और अपने 'ब्राह्मणकुल' व 'काश्यप गोत्र'; का कविने यहां भी उल्लेख किया है। एक पद्य से कुछ ऐसा भाव निकलता है कि कवि पहले शिवभक्त थे, पर पीछे 'गुरु' के वचनामृत-पान से जिनभक्त हो गये थे । उक्त दोनों प्रतियों में 'गुरु' पर 'दिगम्बर ' ऐसा टिप्पण दिया हुआ है, जिससे विदित होता है कि किसी दिगम्बर मुनि के उपदेश से वे शैव धर्म को छोड जिन धर्मावलम्बी हुए थे। अपने आश्रयदाता 'नन्न' की माता भरतमंत्री का भायां का नाम कधिने कुदवा दिया है। जिस प्रकार भरत के अनुरोध स उन्होंने महापुराण की रचना की थी, उसी प्रकार ‘नागकुमार चरित उन्होंने नन्न' की प्रार्थना से रचा। उनके दो शिष्य ‘गुणध(व)र्म' और 'शोभन" व अन्य दो सजन 'नाइल्ल' और 'शीलमट'ने भी इस रचना के लिये कवि को प्रेरणा की। ग्रंथ के आदि और अंत में कविने नन्न की खूब प्रशंसा की है। ____ साहित्य क्षेत्र में पुष्पदन्त की खूब ख्याति रही है । उनका उल्लख बहुतसे कवियोंने किया है। कनकामर' कविने अपने करकण्डू चारेत में उन्हें वापसरि घरु' (वागेश्वरी गृह) कहा है, यथाः ‘जयएव सयंभु विसाल चित्तु । वाएसरिघरु सिरि पुष्फयंतु॥ सोमकीर्ति अपन — यशोधर चरित' (संपूर्ण हुआ वि० सं० १५३६ ) में कहते हैं: यत्प्रोक्तं हरिषेणाद्यैः पुष्पदन्त पुरःसरैः।। श्रीमद्वासबसेनाद्यः शास्त्रस्यार्णवपारगैः॥ तश्चरित्रं मया नूनं बालेन शक्यते कथम् । बाहुभ्यां सागरं घोरं केनापि तरितुं यथा ॥ __ सोलहवीं शताब्दि के एक और अपभ्रंश भाषा के कवि सिंहसेन' अपने आदिपुराण में पुष्पदन्त को स्मरण करते हैं: पुणु वि सयंभु महाका जायउ । चउमुह पुप्फयंतु विक्खायउ॥ यहां हम पुष्पदन्त कवि के समय पर विचार करेंगे। महापुराण में पुष्पदन्त ने जिन आचार्यों व कवियों का उल्लेख किया है उन में 'अकलंक' वीरसेन' और 'जिनसेन' सबसे पीछे के विदित होते हैं। राज वार्तिक ' आदि ग्रंथों के कर्ता प्रसिद्ध तार्किक अकलंक राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज के समय में हुए हैं जिन्हों ने शक संवत् ६७५ से ६९७ तक राज्य किया । जयधवल सिद्धान्त को वीरसेनीया टीका के पूर्व भाग को चौरसेन स्वामी ने जयतुंग देव के समय में रचा था और उसी के उत्तर भाग को उन के शिष्य जिनसेन ने शक सं० ७५९ में अमोघवर्ष नृप के २ 'सिवभसाइमि जिण सण्णासे । वैविमयाइ दुरियणिण्णासे । भणाइ कासवरिसि गोत्तई । 'गुरु' वयणामय पूरिय सोत्तई। ( अवतरण देखिये) ३ शक सं. १०६० में 'होयसाला नरेश' 'विष्णुवर्धन' के एक मंत्री का नाम भी 'भरत' था। वह जैन धर्मावलम्बी व माघनन्दि आचार्य का शिष्य था। (Repertoire D'Epigraphic Jaina by Guerinot p.13, Ins. No. 307-308). ४ कुदस्वागभसाब्भवस्स'। राष्ट्रकूटवंशी प्रसिद्ध नरेश महाराज अमोघवर्ष की रानी का नाम 'कन्दक देवी था। ये 'कन्दक देवी' चेदि नृप 'युवराज' की राज कन्या थी। (Studies in South Indian Jainism) "सम्भवतः ये दोनों भरत के सात पुत्रों में से थे। (देखो प्रेमीजी का लेख ) ६ देखो 'जैनहितैषी' भाग ११, अंक ७-८ पृ. ४२७-४२९ Aho I Shrutgyanam
SR No.009880
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages176
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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