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________________ अंक १ ] सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत । अनेक अंशोंका अभिप्राय उसमें किसी न किसी रूपमें अन्तर्निहित जान पड़ता है +। जहाँ तक हम जानते हैं जैनविद्वानों और आचार्योंमें-- दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंमें-- एक सोमदेवने ही ' राजनीतिशास्त्र' पर कलम उठाई है। अतएव जैनसाहित्यमें उनका नीतिवाक्यामृत अद्वितीय है। कमसे कम अब तक तो इस विषयका कोई दूसरा जैनप्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है। ग्रन्थ-रचना । इस समय सोमदेवसूरिके केवल दो ही प्रन्थ उपलब्ध हैं - नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकचम्पू । इनके सिवाय —— जैसा कि नीतिवाक्यामृत की प्रशस्तिसे मालूम होता है- तीन ग्रन्थ और भी हैं - १ युक्तिचिन्तामणि, २ त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प और ३ षण्णवतिप्रकरण । परन्तु अभीतक ये कहीं प्राप्त नहीं हुए हैं। उक्त ग्रन्थोंमेंसे युक्तिचिन्तामणि तो अपने नामसे ही तर्कप्रन्थ मालूम होता है और दूसरा शायद नीतििवषयक होगा । महन्द्र और उसके सारथी मातलिके संवादरूपमें उसमें त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामकी चर्चा की गई होगी। तीसरेके नामसे सिवाय इसके कि उसमें ९६ प्रकरण या अध्याय हैं, विषयका कुछ भी अनुमान नहीं हो सकता है । [ ४३ इन सब ग्रन्थों में नीतिवाक्यामृत ही सबसे पिछला ग्रन्थ है। यशोधर महाराजचरित या यशस्तिलक इसके पहलेका है । क्योंकि नीतिवाक्यामृतमें उसका उल्लेख है। बहुत संभव है कि नीतिवाक्यामृत के बाद भी उन्होंने ग्रन्थरचना की हो और उक्त तीन ग्रन्थोंके समान वे भी किसी जगह दीमक या चूहों के खाद्य बन रहे हों, या सर्वथा नष्ट ही हो चुके हों। विशाल अध्ययन । यशस्तिलक और नीतिवाक्यामृतके पढ़नेसे मालूम होता है कि सोमदेवसूरिका अध्ययन बहुत ही विशाल था । ऐसा जान पड़ता है कि उनके समय में जितना साहित्य - न्याय, व्याकरण, काव्य, नीति, दर्शन आदि सम्बन्धी उपलब्ध था, उस सबसे उनका परिचय था । केवल जैन ही नहीं, जैनेतर साहित्यसे भी वे अच्छी तरह परिचित थे । यशतिलक के चौथे आश्वास में ( पृ० ११३ में ) उन्होंने लिखा है कि इन महाकवियोंके काव्यों में नम क्षपणक या दिगम्बर साधुओं का उल्लेख क्यों आता है ? उनकी इतनी अधिक प्रसिद्धि क्यों है ?- उर्व, भारवि, भवभूति, भर्तृहरे, भण्ड, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास,* घोस, कालिदास, बाण +, मयूर, नारायण, कुमार, माघ और राजशेखर । इससे मालूम होता है कि वे पूर्वोक्त कवियोंके काव्यों से अवश्य परिचित होंगे । प्रथम आश्वासके ९० वे पृष्ठभ उन्होंने इन्द्र, चन्द्र, जैनेन्द्र, आपिशल आर पाणिनिके व्याकरणोंका जिकर किया है। पूज्यपाद + नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकके कुछ समानार्थक वचनोका मिलान कीजिए: १ – बुभुक्षाकालो भोजनकाल : -- नी० वा०, पृ० २५३ । चारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले, मध्ये दिनस्य धिषणश्चरकः प्रभाते । भुक्तिं जगाद नृपते मम चैष सर्गस्तस्याः स एव समयः क्षुधितो यदैव ॥ ३२८ ॥ - यशस्तिलक, आ० ३। ( पूर्वोक्त पद्यमें चारायण, तिमि, धिषण और चरक इन चार आचार्यों के मतोंका उल्लेख किया गया है। ) २ -- को फवद्दिवाकामः निशि भुञ्जीत । चकोरवन्नक्तं कामः दिवापक्वम् । नी० वा० पृ० २५७ । अन्ये त्विदमाहु:-- यः कोकवद्दिवाकामः स नक्तं भोक्तुमर्हति । स भोक्ता वासरे यश्च रात्रौ रन्ता चकोरवत् ॥ ३३० ॥ -- यशस्तिलक, आ०२ भास महाकविका 'पेया सुरा प्रियतमामुखमक्षणयं' आदि पद्य भी पाँचवें आश्वसमें ( पृ० २५० ) उद्धृत है । रघुवंशका भी एक जगह ( आश्वास ४, पृ० १९४ ) उल्लेख है । + बाण महाकविका एक जगह औ भी ( आ. ४, पृ० १०१ ) उल्लेख है और लिखा है कि उन्होंने शिकारकी निन्दा की है । Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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