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________________ अंक १] सोमदेवमूरिकृत नीतिवाक्यामृत । दर्पान्धबोधबुधसिन्धुरसिंहनादे, वादिद्विपोद्दलनदुर्धरवाग्विवादे । श्री सोमदेवमुनिपे वचनारसाले, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽरित न वादकाले ॥ भाव यह कि अभिमानी पण्डित गजोंके लिए सिंहके समान ललकारनेवाले और वादिगजों को दलित करनेवाला दुर्धर विवाद करनेवाले श्री सोमदेव मुनिके सामने, बादके समय बागीश्वर या देवगुरु बृहस्पति भी नहीं रहर रुकते हैं । इसी तरह के और भी कई पद्य हैं जिनसे उनका प्रखर और प्रचण्ड तर्कपाण्डित्य प्रकट होता है । यशस्तिलक चम्पूकी उत्थानिकाने कहा है:-- [ ४१ आजन्मकृदभ्यासाच्छुष्कात्तर्कात्तृणादिव ममास्याः । _मतिसुरभेरभवदिदं सूक्तपयः सुकृतिनां पुण्यैः ॥ १७ अर्थात् मेरी जिस बुद्धिरूपी गौने जीवन भर तर्करूपी सूखा घास खाया, उसीसे अब यह काव्यरूपी दुग्ध उत्पन्न हो रहा है। इस उक्तिसे अच्छी तरह प्रकट होता है कि श्री सोमदेवसूरिने अपने जीवनका बहुत बड़ा भाग तर्कशास्त्र के अभ्यास में ही व्यतीत किया था । उनके स्याद्वादाचलसिंह, वादभिपंचानन और तार्किकचक्रवर्ती पद भी इसी बातके द्योतक हैं। परन्तु वे केवल तार्किक ही नहीं थे- काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र और राजनीति आदिके भी धुरंधर विद्वान् थे । महाकवि सोमदेव | उनका यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य - जो निर्णगसागर की काव्यमाला में प्रकाशित हो चुका है-इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि थे और काव्यकला पर भी उनका असाधारण अधिकार था 16मूचे संस्कृत साहित्य में यशस्तिलक एक अद्भुत काव्य है और कवित्व के साथ उसमें ज्ञानका विशाल खजाना संगृहीत है । उसका गद्य भी कदम्बरी तिलक जरी आदिकी टक्करका है। सुभाषितों का तो उसे आकर ही कहना चाहिए । उसकी प्रशंसा में स्वयं ग्रन्थकर्ताने यत्रतत्र जो सुन्दर पद्य कहे हैं, वे सुनने योग्य हैं:--- असहायमनादर्श रत्न रत्नाकरादिव । मत्तः काव्यमिदं जातं सतां हृदयमण्डनम् ॥ १४ -- प्रथम आश्वास । समुद्र से निकले हुए असहाय, अनादर्श और सज्जनोंके हृदयकी शोभा बढ़ानेवाले रत्नकी तरह मुझसे भी यह असहाय ( मौलिक ), अनादर्श ( बेजोड़ और हृदयमण्डन काव्यरत्न उत्पन्न हुआ । कर्णाञ्जलिपुटैः पातुं चेतः सूक्तामृते यदि । } श्रूयतां सोमदेवस्य नव्याः काव्योक्तियुक्तयः ॥ २४६ ॥ यदि आपका चित्त कानोंकी अँजुलीसे सूक्तामृतका पान करना चाहता है, तो सोमदेवकी सुनिए । Aho! Shrutgyanam - द्वितीय आ० । नई नई काव्योक्तियाँ लोकवत् कवित्वे वा यदि चातुर्यचञ्चवः । सोमदेवकः सूक्ति समभ्यस्यन्तु साधवः ॥ ५१३ ॥ - तृतीय आ० । यदि सज्जनोंकी यह इच्छा हो कि वे लोकव्यवहार और कवित्वमें चातुर्य प्राप्त करें तो उन्हें सोमदेव कवि की सूक्तियोंका अभ्यास करना चाहिए । मया वागर्थसंभारे भुक्ते सारस्वते रसे । कवयोऽन्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्टभोजनाः ॥ चतुर्थ आ०, पृ० १६५ । मैं शब्द और अर्थपूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्य रस ) का स्वाद ले चुका हूँ, अतएव अब जितने दूसरे कवि होंगे, वे निश्चयसे उच्छिष्टभोजी या जूठा खानेवाले होंगे वे कोई नई बात न कह सकेंगे । अलकालव्यालेन ये लीढा साम्प्रतं तु ते । शब्दाः श्री सोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ॥ - पंचम आ०, पृ० २६६ । समरूपी विकट सर्पने जिन शब्दोंको निगल लिया था, अतएव जो मृत हो गये थे, यदि उन्हें श्रीसोमदेवने उठा दिया, जिला दिया- तो इसमें कोई आश्चर्य नही होना चाहिए। ( इसमें ' सोमदेव ' शब्द ष्ट है । सोम चन्द्रवाची है और चन्द्रकी अमृत-किरणोंसे विषमूच्छित जीव सचेत हो जाते हैं। ) ६
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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