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________________ अंक १ ] सका बीजारोपण है । यहींसे योगमार्गका आरंभ हो जानेके कारण उस आत्माकी प्रत्येक प्रवृत्तिमें सरलता, नम्रता, उदारता, परोपकारपरायणता आदि सदाचार वास्तविक रूपमें दिखाई देते हैं; जो उस विकासोन्मुख आत्माका बाह्य परिचय है " । इतना उत्तर देकर आचार्यने योगके आरंभसे लेकर योगकी पराकाष्ठा तकके आध्यात्मिक विकासकी क्रमिक वृद्धिको स्पष्ट समझाने के लिये उसको पाँच भूमिकाओं में विभक्त करके हर एक भूमिका लक्षण बहुत स्पष्ट दिखाये हैं 1, और जगह जगह जैन परिभाषा के साथ बौद्ध तथा योगदर्शनकी परिभाषाका मिलान करके 2 परिभाषाभेदकी दिवारको तोडकर उसकी ओट में छिपी हुई योगवस्तुकी भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है । अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंशय ये योगमार्गकी पाँच भूमिकायें हैं । इनमें से पहली चारको पतंजलि संप्रज्ञात, और अन्तिम भूमिकाको असंप्रज्ञात कहते हैं । यही संक्षेपमें योगबिन्दुकी वस्तु है । यागदर्शन योगदृष्टिसयुच्चयमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका वर्णन योगन्विदुकी अपेक्षा दूसरे ढंगसे है । उसमें आध्यात्मिक विकासके प्रारंभ के पहलेकी स्थितिको अर्थात् अचरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण संसारकालीन आत्माकी स्थितिको दृष्टि कहकर उसके तरतम भावको अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया है4, और पीछे आध्यात्मिक विकासके आरंभसे लेकर उसके अंततकमें पाई जानेवाली योगावस्थाको योगदृष्टि कहा है । इस योगावस्थाकी क्रमिक वृद्धिको समझानेके लिये संक्षेपमें उसे आठ भूमिकाओं में बाँट दिया है । वे आठ भूमिकायें उस ग्रन्थर्मे आठ योगदृष्टिके नामसे प्रसिद्ध हैं । इन आठ दृष्टियों का विभाग पातंजलयोगदर्शन- प्रसिद्ध यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि आठ योगांगों के आधार पर किया गया है, अर्थात् एक एक दृष्टिमें एक एक योगांगका सम्बन्ध मुख्यतया बतलाया है । पहली चार दृष्टियां योगकी प्रारम्भिक अवस्थारूप होनेसे उनमें अविद्याका अल्प अंश रहता है । जिसको प्रस्तुत ग्रंथ में अवेद्यसंवेद्यपद कहा है 6 | अगली चार दृष्टियों में अविद्याका अंश बिल्कुल नहीं रहता । इस भावको आचार्यने वेद्यसंवेद्यपद शब्दसे जनाया 7 है । इसके सिवाय प्रस्तुत ग्रंथमें पिछली चार दृष्टियोंके समय पाये जानेवाले विशिष्ट आध्यात्मिक विकासको इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योग भूमिकाओं में विभाजित करके उक्त तीनों योगभूमिकाओंका बहुत रोचक वर्णन किया है 8 । [ २३ आचार्यने अन्तमें चार प्रकारके योगियोंका वर्णन करके योगशास्त्र के अधिकारी कौन हो सकते हैं, यह. भी बतला दिया है । यही योगदृष्टिसमुच्चयकी बहुत संक्षिप्त वस्तु है । योगविंशिकामें आध्यात्मिक विकासकी प्रारंभिक अवस्थाका वर्णन नहीं है, किन्तु उसकी पुष्ट अवस्थाओंका ही वर्णन है । इसीसे उसमें मुख्यतया योगके अधिकारी त्यागी ही माने गये हैं ! प्रस्तुत ग्रन्थमें त्यागी गृहस्थ और साधुकी आवश्यक - क्रियाको ही योगरूप बतलाकर उसके द्वारा आध्यात्मिक विकासकी क्रमिक वृद्धिका वर्णन किया है। और उस आवश्यक क्रियाके द्वारा योगको पाँच भूमिकाओं में विभाजित किया है । ये पांच भूमिकायें उसमें स्थान, शब्द, अर्थ, सालंबन और निरालंबन नामसे प्रसिद्ध हैं । इन पाँच भूमिकाओंमें कर्मयोग और ज्ञानयोगकी घटना करते हुए आचार्यने पहली दो भूमिकाओंको कर्मयोग और पिछली तीन भूमिकाओंको ज्ञानयोग कहा है । इसके सिवाय प्रत्येक भूमिकामें इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्धिरूपसे आध्यात्मिक विकासके तरतम भावका प्रदर्शन कराया है; और उस प्रत्येक भूमिका तथा 1 1 योगबिंदु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३९६ । 2 “यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः । सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तैषोऽन्वर्थतोऽपि हि ।। २७३॥ बरबोधिसमेतो वा तीर्थकुद्यो भविष्यति । तथाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः ॥ २७४ ॥ योगबिन्दु । 3 देखो योगबिंदु ४१८, ४२० । 4 देखो, योगदृष्टिसमुच्चय १४ । 5 १३ । 6 ७५ । Aho! Shrutgyanam 7 ७३ । 8 २-१२ ।
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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