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________________ अंक १ ] जैन दर्शनके साथ योगशास्त्रका सादृश्य तो अन्य सब दर्शनोंकी अपेक्षा अधिक ही देखनेमें आता है यह बात स्पष्ट होनेपर भी बहुतों को विदित ही नहीं है। इसका सबब यह हैं कि जैनदर्शनके खास अभ्यासी ऐसे बहुत कम हैं जो उदारता पूर्वक योगशास्त्रका अवलोकन करनेवाले हों, और योगशास्त्रके खास अभ्यानी भी ऐसे बहुत कम हैं जिन्होंने जैनदर्शनका बारीकीसे ठीक ठीक अवलोकन किया हो। इसलिये इस विषयका विशेष खुलासा करना यहाँ अप्रासङ्गिक न होगा । योगशास्त्र और जैनदर्शनका सादृश्य मुख्यतया तीन प्रकारका 1 १ शब्दका, २ विषयका और ३ प्रक्रियाका । १ मूल योगसूत्रमें ही नहीं किन्तु उसके भाष्यतकमें ऐसे अनेक शब्द हैं जो जैनेतर दर्शनामें प्रसिद्ध नहीं हैं, या बहुत कम प्रसिद्ध हैं, किन्तु जैन शास्त्रमें खास प्रसिद्ध है । जैसे- भवप्रत्यय, 1 सवितर्क- सविचारनिर्विचार 2, महाव्रत, कृत- कारित अनुमोदित 4, प्रकाशावरण, सोपक्रम - निरूपक्रम 6, वज्रसंहनन 7, केवल 8, कुशल 9, ज्ञानावरणीयकर्म 10, सम्यग्ज्ञान, 11 सम्यग्दर्शन, 12 सर्वश, 13 क्षीणक्लेश, 15 चरमदेह 16 आदि । 1" भवप्रत्ययो विदेद्दप्रकृतिलयानाम् अ. १-२२ । ८८ योगसू. १--१९ । भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् तत्त्वार्थ 64 "" "" 2 ध्यानविशेषरूप अर्थमें ही जैनशास्त्रमें ये शब्द इस प्रकार हैं। " एकाश्रये सक्तिर्के पूर्वे " ( तत्त्वार्थ अ. ९-४३ ) तत्र सविचारं प्रथमम् भाष्य अविचारं द्वितीयम् ” तत्त्वा० अ० ९-४४ | योगसूत्रमें ये शब्द इस प्रकार आये हैं- " तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः " स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्माता निर्वितर्का " एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता 66 99 १-४२, ४३, ४४ । 3 जैनशास्त्र में मुनिसम्बन्धी पाँच यमोंके लिये यह शब्द बहुत ही प्रसिद्ध है । छाव्रतमिति तत्त्वार्थ ” अ० ७ -२ भाष्य । यही शब्द उसी अर्थ में योगसूत्र २ - ३१ में है । 4 ये शब्द जिस भाव के लिये योगसूत्र २-३१ में प्रयुक्त हैं, उसी भावमें जैनशास्त्र में भी आते हैं, अन्तर सिर्फ इतना है कि जैनग्रन्थोंमें अनुमोदितके स्थान में बहुधा अनुमतशब्द प्रयुक्त होता है । देखोतत्त्वार्थ, अ. ६–९ । 35 योगदर्शन "" 9 देखो योगसूत्र २ -- २७ भाष्य, तथा दशवैकालिकानिर्युक्ति गाथा १८६ | 10 देखो योगसूत्र २ - १६ भाष्य, तथा आवश्यकनियुक्ति गाथा ८९३ । 11 योगसूत्र २ - २८ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० १-१ । 12 योगसूत्र ४ - १५ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० १-२ । 13 योगसूत्र ३ - ४९ भाष्य, तत्त्वार्थ ३-४९ । 14 योगसूत्र १ - ४ भाष्य । जैन शास्त्रमें बहुधा ' क्षीणमोह '' क्षीणकषाय ' तत्त्वार्थ अ० ९-३८ । 15 योगसूत्र २-४ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० २-५२ "" 5 यह शब्द योगसूत्र २-५२ तथा ३-४३ में है। इसके स्थान में जैनशास्त्र में : प्रसिद्ध है । देखो तत्त्वार्थ. ६-११ आदि । 6 ये शब्द योगसूत्र ३ - २२ में हैं । जैन कर्मविषयक साहित्यमें ये शब्द बहुत प्रसिद्ध हैं । तत्त्वार्थमें भी इनका प्रयोग हुआ है, देखो – अ. २-५२ भाष्य । 7 यह शब्द योगसूत्र ३ - ४६ में प्रयुक्त है । इसके स्थान में जैन ग्रन्थोंमें 'वज्रऋषभनाराच संहनन' ऐसा शब्द मिलता है । देखो तत्त्वार्थ अ० ८-१२ भाष्य । 8 योगसूत्र २ -- २७ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० ६-१४ । Aho! Shrutgyanam [ १९ " सर्वतो विरतिर्म - " जानावरण शब्द शब्द मिलते हैं। देखो
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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