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________________ १६] जैन साहित्य संशोधक वैशेषिक 1-नैयायिक, बौद्ध, जैन2 और पूर्णप्रश ( मध्व ) दर्शनके समान द्वैतवाद अर्थात् अनेक चेतन माने गये हैं। योगशास्त्र चेतनको जैन दर्शनकी तरह। देहप्रमाण अर्थात् मध्यमपरिमाणवाला नहीं मानता, और मध्वसम्प्रदायकी तरह अणुप्रमाण भी नहीं मानता किन्तु सांख्या वैशेषिक8, नैयायिक और शांकरखेदान्तकी9 तरह वह उसको व्यापक मानता है10। इसी प्रकार वह चेतनको जैनदर्शनकी तरह11 परिणामि-नित्य नहीं मानता, और न बौद्ध दर्शनकी तरह उसको क्षणिक-अनित्य ही मानता है, किन्तु सांख्य आदि उक्त शेष दर्शनोंकी तरह 12 वह उसे कूटस्थ-नित्य मानता13 है। २. ईश्वरके सम्बन्धमें योगशास्त्रका मत सांख्य दर्शमसे भिन्न है । सांख्य दर्शन नाना चेतनाके अतिरिक्त ईश्वरको नहीं मानता14, पर योगशास्त्र-सम्मत्त ईश्वरका स्वरूप नैयायिक-वैशेषिक आदि दर्शनोंमें माने गये ईश्वरस्वरूपसे कुछ भिन्न है। योगशास्त्रने ईश्वरको एक अलग व्यक्ति तथा शास्त्रोपदेशक माना है सही, पर उसने नैयायिक आदिकी तरह ईश्वरमें नित्यशान, नित्यईच्छा और नित्यकृतिका सम्बन्धन मान कर इसके स्थानमें 1 "व्यवस्थातो नाना" ३-२-२०. वैशेषिकदर्शन । 2 "पुद्गलजीवास्त्वनेकद्रव्याणि" ५-५. तत्त्वार्थसूत्र-भाष्य। .. 3 जीवेश्वरभिदा चैव जडेश्वरभिदा तथा । जीवभेदो मिथश्चैव जडजविभिदा तथा ॥ मिथश्च जडभेदी यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः । सोऽयं सत्योऽप्यनादिश्व सादिश्चेन्नाशमाप्नुयात् ।। -सर्वदर्शनसंग्रह पूर्णप्रशदर्शन । ___4 " कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् " २-२२ यो. सू. । 5 असंख्येयभागादिषु जीवानाम् " । १५ । " प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ” १६-तत्त्वार्थसूत्र अ० ५। 6 देखो " उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम् " । ब्रह्मसूत्र २-३-१८ पूर्णप्रश भाष्य । तथा मिलान करो अभ्यंकरशास्त्री कृत मराठी शांकरमाष्य अनुवाद भा. ४ पृ. १५३ टिप्पण ४६ । 7" निष्क्रियस्य तदसम्भवात् " सां. सू. १-४९, निष्क्रियस्य-विभोः पुरुषस्य गत्यसम्भवात्--भाष्य विज्ञानभिक्षु । 8 विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा । " ७-१-२२-वै. द.। 9 देखो ब्र. सू , २-३-२९. भाष्य । 10 इसलिये कि योगशास्त्र आत्मस्वरूपके विषयमें सांख्यसिद्धान्तानुसारी है । 11 "नित्यावस्थितान्यरूपाणि" ३ । " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । २९ । “ तद्भावाव्ययं नित्यम् ३० । तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ भाष्य सहित. - 12 देखो ई० कृ० कारिका ६३ सांख्यतत्त्वकौमुदी । देखो न्यायदर्शन ४-१-१० । देखो बह्मसूत्र २-१-१४ । २-१-२७; शांकरभाष्य सहित । ___ 13 देखो योगसूत्र. " सदाशाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य अपरिणामित्वात् ” ४-१८ । " चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाऽकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ” ४-२२ । तथा " द्वयी चेयं नित्यता, कूटस्थनित्यता, परिणा• मिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम् " इत्यादि ४-३३ भाष्य । 14 देखो सांख्यसूत्र १-९२ आदि । Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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