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________________ बैंक 1 [ १३ चार भेद नजर आते हैं । उक्त चार मैदके नाम तथा भाव प्रायः वही हैं, जो जैनदर्शन तथा योगदर्शनकी प्रक्रियामें हैं1 । बौद्ध संप्रदायमें समाधि राज नामक ग्रन्थ भी है । वैदिक, जैन और बौद्ध संप्रदायके योगविषयक साहित्यका हमने बहुत संक्षपमें अत्यावश्यक परिचय कराया है, पर इसके विशेष परिचयके लिये कॅटलोग कॅट्लागॉरम् 2, वो० १ पृ. ४७७ से ४८१ पर जो योगविषयक अन्योंकी नामावलि है वह देखने योग्य है। यहां एक बात खास ध्यान देनेके योग्य है, वह यह कि यद्यपि वैदिक साहित्यमें अनेक जगह हठयोगकी प्रथाको अग्राह्य कहा है3, तथापि उसमें हठयोगकी प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थोंका और मार्गोका निर्माण हुआ है । इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्यमें हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोगका स्पष्ट निषेध भी किया है। 1. सो खो अहं ब्राह्मण विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलहिं धम्महि सवितकं सविचारं विवेकजं पीतिसु खं पढमज्झानं उपसंपज्ज विहासि; वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं संपसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितकं अविचारं समाधिज पीतिसुखं दुतियज्झानं उपसंपज्ज विहार्सि; पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहार्सि; सतो. चे संपजानो सुखं च कायेन पार्टसंवेदोर्सि, यं तं अरिया आचिक्खन्ति-उपेक्खको सतिमा सुखविहारीऽति ततियज्झानं उपसंपज विहासि; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बऽव सोमनस्स दोमनस्सानं अत्थंगमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासति पारिसुद्धिं चतुत्थज्झानं उपसंषज मज्झिमनिकाये भयभेखसुत्तं विहासि । इन्हीं चार ध्यानोंका वर्णन दीघनिकाय सामञकफलसुत्तमें है। देखो प्रो. सि. वि. राजवाडे कृत मराठी अनुवाद पृ. ७२ । यही विचार प्रो. धर्मानंद कौशाम्बी लिखित बुद्धलीलासारसंग्रहमें है । देखो पृ १२८ । जैनसूत्रमें शुक्लध्यानके भेदोंका विचार है, उसमें उक्त सवितर्क आदि चार ध्यान जैसा ही वर्णन है। देखो तत्त्वार्थ अ० ९ सू० ४१-४४ ।। ___ योगशास्त्रमें संप्रशात समाधि तथा समापत्तिओंका वर्णन है। उसमें भी उक्त सवितर्क निर्वितर्क आदि ध्यान जैसा ही विचार है । पा. सू. पा. १-१७, ४२, ४३, ४४ । । 2 थिआडोर आउफ्रेटकृत, लिप्झिगमें प्रकाशित १८९१ की आवृत्ति । 3 उदाहरणार्थःसतीषु युक्तिध्वेतासु हठान्नियमयन्ति ये । चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिम्नन्ति तमोऽअनैः ॥ ३७॥ विमूढाः कर्तुमुद्युक्ता ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं बिसतन्ततुभिः ॥ ३८ ॥ चित्तं चित्तस्य वाऽरं सस्थितं स्वशरीरकम् । साधयान्त समुत्सृज्य युक्ति ये तान्हतान् विदुः ॥ ३९ ॥ योगवाशिष्ठ-उपशम प्र. सर्ग ९२. 4 इसके उदाहरणमें बौद्ध धर्ममें बुद्ध भगवान्ने तो शुरुमें कष्टप्रधान तपस्याका आरंभ करके अंतमें मध्यमप्रतिपदा मार्गका स्वीकार किया है-देखो बुद्धलीलासारसंग्रह. जैनशास्त्रमें श्रीभद्रबाहुस्वामिने आवश्यकनियुक्तिमें “ ऊसासं ण णिरंभइ" १५२० इत्यादि उक्तिले हठयोगका ही निराकरण किया है । श्रीहेमचन्द्राचार्यने भी अपने योगशास्त्रमें " तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदार्थतं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः ॥" इत्यादि उक्तिसे उसी बातको दोहराया है । श्रीयशोविजयजीने भी पातञ्जलयोगसूत्रकी अपनी वृत्तिमें (१-३४) प्राणायामको योगका आनिश्चित साधन कह कर हठयोगका ही निरसनं किया है । Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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