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________________ अंक १ ] योगदर्शन इसके सिवा उसमें ज्ञान 1, श्रद्धा 2, उदारता 3, ब्रह्मचर्य 4, आदि आध्यत्मिक उच्च मानसिक भावोंके चित्र भी बड़ी खूबीवाले मिलते हैं। इससे यह अनुमान करना सहज है कि उस जमानेके लोगोंका झुकाव अध्यात्मिक अवश्य था । यद्यपि ऋग्वेद में योगशब्द अनेक स्थानोंमें आया है 5, पर सर्वत्र उसका अर्थ प्रायः जोडना इतना ही है, ध्यान या समाधि अर्थ नहीं है । इतना ही नहीं बल्कि पिछले योग विषयक साहित्यमें ध्यान, वैराग्य, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि जो योगप्रक्रिया - प्रसिद्ध शब्द पाये जाते हैं वे ऋग्वेदमें बिलकूल नहीं हैं। ऐसा होनेका कारण जो कुछ हो, पर यह निश्चित है कि तत्कालीन लोगोंमें ध्यानकी भी रुचि थी । ऋग्वेदका ब्रह्मस्फुरण जैसे जैसे विकसित होता गया और उपनिषद के जमाने में उसने जैसे ही विस्तृत रूप धारण किया वैसे वैसे ध्यानमार्ग भी अधिक पुष्ट और साङ्गोपाङ्ग होता चला । यही कारण है कि प्राचीन उपनिषदोंमें भी समाधि अर्थ में योग भ्यान आदि शब्द पाये जाते हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद में तो स्पष्ट रूपसे योग तथा योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा आदि योगाङ्गोंका वर्णन है 7 । मध्यकालीन और अर्वाचीन अनेक उपनिषदें तो सिर्फ योगविषयक ही ऋग्वेदःपु० सूक्त मं. १९ सू. १२१ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥ य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः । यस्य च्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ २ ॥ भाषांतर :-- पहले हिरण्यगर्भ था । वही एत भूत मात्रका पति बना था। उसने पृथ्वी और इस आकाशको धारण किया। किस देवको हम इविसे पूजें १ । १ । जो आत्मा और बलको देनेवाला है । जिसका विश्व है। जिसके शासनकी देव उपासना करते हैं। अमृत और मृत्यु जिसकी छाया है। किस देवको हम हविसे पूजें ? । २ । ऋग्वेद मं. १०-१२९-६ तथा ७– को अद्धा वेद क इह प्रवोचन् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव ॥ इयं विसृष्टिर्यत आ बभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्ष परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥ भाषांतर:- कौन जानता है-कौन कह सकता है कि यह विविध सृष्टि कहाँसे उत्पन्न हुई ? | देव इसके विविध सर्जन के बाद ( हुवे ) हैं । कोन जान सकता है कि यह कहांसे आई ? यह विविध सृष्टि कहांसे आई और स्थिति में है या नहीं ? यह बात परम व्योममें जो इसका अध्यक्ष है वही जाने - कदाचित् वह भी न जानता हो । 1 मं. १० सू. ७१ । 2 मं. १० सू. १५१ । ३ मं. ११ सू. ११७ । 4 मं. १४ सू. १० 5 मंडल १ सूक्त ३४ मंत्र ९ । मं. १० सू. १६६ मं. ५ । मं. १ सू. १८ मं. ७ । मं. १ सू. ५ मं. ३ । मं. २ सू. ८ मं. १ । मं. ९ सू. ५८ मं. ३ । 6 ( क ) तौत्तरिय २-४ । कठ २-६-११। श्वेताश्वतर २ – ११, ६- ३ | ( ख ) छान्दोग्य ७–६–१, ७–६–२, ७–७–१, ७–२६ - १ | श्वेताश्वतर १-१४ । कोशतिकि ३ -२, ३-३, ३४, ३-६॥ 7 श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय २ त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य । झोपेन प्रतरेत विद्वान्सोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ ८ ॥ प्राणान्प्रपङियेह सयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोसीत । दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः ॥ ९ ॥ समे शुचौ शर्करावन्हिवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः । मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ इत्यादि. Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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