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________________ जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट. રૂપ २४ हजार करभ | १७ हजार बेसा । २२ हजार महिषा | दोष वृषभ । एक लक्ष शकट । १५ सो कौतुक चडोल | इणि परि पूर्वभवपून्ये भोगवें । पूर्वor at aise व्यवहारीयाने घरे कुमारपालनउ जीव चाकर हूतो | तिहां निर्मल श्रद्धा थकी नव कप कानां अढार फूल आव्यां । ते लेइ सिद्ध गौरी श्री परमेश्वरनई चढाव्यां । तिणै पून्येकरी १८ देशनी साहिबी भोगतो, श्री गुरु वचनें सुकृत करतो, जिन सासन सोभावतो, थको दिन नीगमई । एहवई वि. सं. १२२९ वर्ष सार्वत्रिकोट ग्रंथ करता, कलिकाल सर्वज्ञ बिरूद धारक, अष्टादश देशाधिपति बोचक, श्री तारणगिरी तीर्थ थापक आ० श्री हेमचंद्रसूरी स्वर्ग हूओ । उक्तंच:--- । सो जय बुडबाई १ सिद्धसेनो जयउ खलु हरिभद्दो । सिरी बप्पभट्टसूरो ४ पालितो ५ अभयदेवो य ६ सिरीमलयगिरिसूरी ७ सूरी सिरीयसोभद्दो य ८ । सिरीहेमसूरीअ ९ अभि पवरथेरा जयंतु जुगपवरा || पुनः विक्र. सं. १२३० वर्षि कलिकाल राजर्षि बिरुद धारक श्री जीनसासमुन्नतिकारक ( ६५ - १ ) सो० श्री कुमारपाल स्वर्ग हुआ । यतः उक्तम् दया धर्मं सुवेलडी रोपीरुषभ जिणंद । श्रावककुलमंडप चडी सिंची कूमर नरिंद ||१|| श्री कुमारपाल संबंध || बई श्री अचल गछनी उत्पत्ती कहई asia face arts श्री उद्योतन सूरी । तेहनें पाटी श्री सर्वदेव सूरी | तेहना लघु गुरु भाइ आ० श्री पद्मदेव सूरी १ | तेहना शिष्य श्री उदयप्रभ सूरी २, धर्मचंद सूरी ३, विनयचंद्र सूरी ४, गुणसागर सूरी ५, विजयप्रभसूरी ६ तेहना नरचंद्र सूरी ७ तेहना श्री वीर चंद्रसूरी ८ तेहना शिष्य आ० श्री जयसिंह सूरी । ते आबूनी तलहटीई दत्ताण नगरें शालाई रह्या छे । एहवई तिहां ओ० वृद्ध द्रौण नाभि सेठ रहिछई । तेहनई नाटी नॉमी स्त्री छई, तेहनइं गोदो नाम बेटो छे । तेहनो वि० सं० ११३६ वर्ष जन्म हुआ। पुनः तिथे पुन्यने योगे वि० सं० १९४२ वर्षि श्री जयसिंहसूरी हास्त दीक्षा [ खंड १ लीची | तिहां प्रथम साधुनओ आचार ओलषवानहं हेति श्री दशवैकालिक सूत्र गुरु तेहनें भणाविता हुया । भणता थका अध्ययन सातमानी गाथा छठी भणवा मांडी | (६५ - २ ) ते गाथा सीउदगं न सेवेज्जा शिलावुढं हिमाणियं । उसिणोदगं तत्थ फासूयं पडिगाहिज्ज संजइ || १ || ए. गाथानओ अर्थ गुरुई भगाव्यो । ते अर्थ गोदें चित्तमांहि विचारयो । पोशाल मांहि ताढा सचित्त पांणीना मांडा भरया देषी गुरुनई पूछें, श्री गुरुजी अन्नहा वाहाई अन्नहा किरिया कही । ए वचन सांभली गुरु कहें, सुशिष्य एह किरिया आ समयई न चालि | तिवारि ति शिष्यैक ए किया करई तेहनई लाभ किंवा त्रौटो ? गुरु कहे लाभ, पिण तेहने त्रोटो नहीं । एहनी गुरे योग्य क्रियापात्र तपस्वी जाणी उपाध्याय पद देइ श्री विजयचंद्र नाम दिधुं । तिणई तिहां थकी गुरु वांदी आज्ञा लही प्यार साधुस्युं विहार कीधो । केतलेक दिवस पावइ पर्वत आव्या । तिहां संप्रति नृप कारक प्रासादे श्री संभव देवनई नमस्कार करी चउ विहार मासखमणे उपाध्याय काउगि रह्या । मास संपूर्णि जितेंद्रिय तपस्वी पणइ जांणी महाकाली देव्या वांदी कहीई-हुँ तुम्ह उपरी प्रसन्न हूं । तुह्मो संवनई कल्याणकारी छु । मुझने संभारई उपद्रव वेगलो करीस | पिण आज ( ६६ - १ ) कृष्णाष्टमी छई ते माटि मुझनई अष्टमाई दीनई उपवासी तुम्हे संभारज्यों । ते देवी दत्तवर थकी उपाध्याय श्री विजयचंद्र पावागिरि पीठ थकी उतरी भालिज नगरई आवी मासखमणनें पारिणए यशोधन भणशालीनई घरे आहार लीवो | एतलई देवीनइ वर थकी मुख्य गृहस्थ यशोधन धनशाली हुआ एतले पांचमा आरानहं योगी केवलीने अभावें करी आपआपणी स्वईछा थकी नव नवी क्रिया नव नवी समाचारी आदरी एतलिं पोताना गुरुनी भूल समाचारी लोपीनई, वि० सं० १९६९ वर्षि, श्री जयसिंह दैव राज्यै एकसओ अनिं सित्तर बोलनी परूपणाई श्री विधिपक्ष गछनाम दीधुं । तिहां थकी केतक दीनें श्रीविजयचंद्र उपा । । Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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