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________________ अंक ३] .....वीर वंशावलि. अमे कहयूं जे तुअरी । पुनः तुम्हे कयूं जे एहना हाथ- २८ तत्पट्टे श्रीमानदेव सूरी। . माहि स्युं, जिवारे अम्हे कहयो, जे ए बीजोरा । एतले पोतानी देही असमाधी पणई चित थकी श्री सूरीमंत्र ( ४३.२ ) आम्रने नामि आम राजा जाणिवा । पुनः वीसरी गयो । केतलेक दिने श्रीसरिनइं समाधी हुई । तुअरि कहिता ताहरो ए. शत्रु । पुनः बीजोरा कहितां तिवारई श्री सुरि ( ४४-२) गिरीनार पर्वति आवी तुम्हे राजा ए पिण राजा | ए श्लोक पिण पूर्ण प्रतिज्ञानो बिमासी चउवीहार तप कीधओ | अंबीका आवी कहईबारणई सकल लोक देवता लिख्यो छै । ते सांभली आम ए किम ? तिवारे सुरी कहै-मुझ देही असमाधी सूरीमंत्र शत्रु विचारी, जे शत्रु सांकडे आव्यो हुतो पिण तेहना मुझ चित्त थकी वीसरी गयो। ते सूरीवचन सांभली पुन्य थकी कुशले गयो । प्रतिज्ञा संपूर्ण, संधाज्ञा लेई गुरु देव्याई श्रीसुरिमंत्र संभारी विजया देवीने पूछी श्रीसुरीनै ग्वालेर नगरें आव्या । आम राजाइ शालाई महोच्छये मंत्र कह्यापधराव्या । महा हर्ष पांमी श्री बाप्पभद्र सूरीन मुष वार विद्यासमुद्रहरिभद्रमुनींद्रमित्र व्रत उची । एकदा गुरुनइ आम कहई--तुम्हे श्रीगुरु ! सूरिबभूव पुनरेव हि मानवः । मुझ उपरि कृपा करी काइक ए जीव प्रथे सुकृत कहो । मांद्यात्प्रयातमपियोनघऽसुरिमंत्र तिवारई गुरु कहई आ असार संसार तेहने विषई दोष लंभे ऽबिकामुखगिरा तपसोजयन्ते ॥ १ ॥ रहित श्रीजिनबर, तेहनी भनी, तेहिंज सार, जेह थकी २९ तत्पट्टे श्रीजयानन्द सूरी । माणिने सद्गति हुई । यतः श्री सूरीना उपदेश की वि० सं० ८२१ वर्षि श्री कारयंति जिनानां ये तृणावासमपि स्फुटं ! हमीरगढि, विज्जानगरें, ब्रह्माणि नंदिय, ब्राह्मण बाटक, अखंडितविमानानि ते लभतेऽत्र विष्टपे ॥ १॥ महुरि नगरे, श्रीपास इत्यादिक श्रीसंप्रतिकारक नवशत ते गुरुनो उपदेश सांभली ग्वालेर नगरइं एक शत प्रासाद जीर्णोद्धार प्रा० मं० सामंतइं कीधो।। अनि आठ गज ऊंचओ प्रासाद नीपजावी ते मांहि श्री पुनः विक्र० सं० ८४१ वर्ष थकी मांडी पिस्तालीवीरबिंब ( ४४-१ ) विक्रम सं. ७५६ वर्षि भूमिगृह ताई पंच दुकाली हूइ । ते अवसरई घणा साधु मर्याद थाप्यो । श्रीबप्पभट्टि प्रतिष्ठयों । पुनः श्रीसिद्ध गीरीई त्रणि थकी सिथिल हूया । तिवारे उ० श्री गोविंद, उ० श्री लक्ष मनध्ये संघपति थई यात्रा कीवी । ताडाबार कोटि संभूति, श्री दूष्यगणि क्षमाश्रमण, उग्रतपस्वी श्री क्षे सुवर्ण सुकृति करि श्रीजैन धर्म आराधी आम चहूआण ( ४५-१) मरीषी, मन्दधारी गन्छीय श्रोहपतिलक, नि०.१० ७६० वर्षि स्वगी हूओ । पुनः श्रीसूरीने वा- श्रीथूलिभद्रवंश श्रीहर्ष पुरीय ग मोकृष्णर्षि, प्रमुष गील्यावस्थाई सालसें गाथा सूर्योदय मुबमा चढती । नेह- तार्थो मिलि, श्री सुरीना बचन यकी समय विषम जांणी ना बोधना शाप यकी सातप्तर वृत जरनु । श्रीवीर नि महानगरदं शुभ थानिक सिद्धान्तना भंडार हूया--ज्ञान वांग हूआ पछी तेरसई अनि पात्रीस वर्ष वीतई पुनः यत्न की वो । वक्रम सं. ७६१ वर्षि श्री गोपाचलाधीशः राजा श्री पुनः वि० सं० ८६१ वर्षि श्रीकरहेडा नगरई श्री आम प्रतिवधिक आ० श्रीवप्पभट्ट स्री स्वर्ग हुआ। पार्श्वनाथनो प्रासाद हुआ | उपकेशभूत गोत्रे को खीम उक्त च सिंध कराव्यो । एहबा अनेक सुकृत श्रीसूरीना उपदेश य तिष्टति परवेम्मान, सार्य द्वादशसुवर्णकोट्याः थकी हूया ॥ निर्गापितो आमराज्ञा गोपगिरौ जयति जिनवीर ।। १ ३० तत्पट्टे श्री वीरप्रभ सूरी। इति व पाती। ११.४.२६ निभ १.६९ वर्षि दील्लीई बहू आण हुआ। Aho I Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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