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________________ १२ गोवालिया उच्चा गह गही, हर्षित थका ताली देता सही । भलो एहीज डोकरउ, नहीं भणीओ एहीज छोकर |९| भट जे बोल्यो भूतप्रलाप, फोड्या कांन बिगोइओ आप जीत्यो ए हरयो तुं हल्ला, पाए लागी करई ए गुर भल्ला | जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट. ते गोवालीयाना वचन सांभली कुमुदचंद्र श्रीवृद्धवादी कहें हूं प्रतिज्ञा संपूर्णि । विद्यावादे हारयों । ते मार्टि मुझने शिष्य करो | किसा थकी, तुम्हे समयना जाण अनि हुं संमयनो जाण नहि । एतली माहरी बुद्धि काची | गुरे दीक्षा देश ' कुमुदचंद्र साधु नाम दीधुं । केतलक दिने गुरुसंग थकी श्रुतवर हुया | अतिगर्वित थकी, एकदा श्रीगुरुनें करें, गणधर गुंथीत जे प्राकृत सिद्धांत व ते सबला संस्कृत करूं । इम कही महा उद्दाम विद्यापण 'नमो अरिहंताणं ' ए. सकल पंच पद प्राकृत छई, तेहनि संस्कृत निपजावी गुरुनें संभलाव्यो “ नमोऽहीत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसा ( २१ - २ ) भ्यः " ते सांभली गुरु कहें सकल गुण सन श्रीदेवा धिदेव सर्वाक्षर संनिपात लब्धिना श्रेणी गणधरादि हुआ। अनि श्रुत. केवली पण आगि हुया । पिण जे श्रीवीर मुखिं गणधरें त्रिपदी पांमीनई मुग्ध प्राणीनई उपगार नई हेतूई प्राकृत भाषाई रचना की | dea वन अन्यथा करई ते अनंत संसारी हुई । ते माटिं ' नमोऽसिद्धा० " ए वचने तुम्हनई मोटी आलोयणा आवी । ते वृद्धवादी गुरुनो वचन सांभली कुमुदचंद्र चेलो गुरु पासें वृद्धनु वचन अन्य करयानी आलोयण मागई। तिवारt गुरु कहेई, गाढा मिध्यात्वीने प्रतिबोधी समकित पमाडी जैनपणु आदरावी गत तीर्थ पाने वालई तओ श्रीसंधि गच्छ मांडलई आवई । हवं गुरु १ संघ २ नु वचन माण करी एकाकी वीहार करता ragत वेंशि, बारमदं वर्षि, मालवदेसि, उज्जेणी नगरई, परमार श्री वीक्रमार्क राज्ये शिप्रातटिं श्रीमहाकालेश्वरनि प्रसादि शिव लिंग उ ( २२ - १ ) परिं मस्तक दे सुतो । बीजई दिनिं प्रात समई अर्चक सिवपूजक आव्यो । एतले प्रोढ शरीर, लंब भुजा, विशाल अवयव, निःस्पृह, अबीह, देषा अर्चक कहई - तूं उदि उठि । ए शिव " [*** भोलो भस्मयोगी तेहनें दुहवी किस्यूँ मरण मागई छे । इस गाढ स्वर अक वार वार कहई तलई मनुष्य एकटा हुआ । कहि उठि उठि । पिण किम हि न उठि। तिवारे भरडई विक्रम पोकारयां । वक्रम कहीई, ताणी घसरडी प्रासाद बाहि काही नांख्यो । ते भरड राजाना अनुचर लई मनुष्यना समुदाय मीली उठावा लागा । पिण ते वज्र तुल्य । शिवनी आशातना जाणी पुनः अर्चक विक्रमई पोकारें । विक्रमें शिव मर्यादा लोपी जांणी वाजणा दीवा । ते त्राजणा रांणीनें प्राहार हुई | रांणी आकंद करें । ते सांभली वीक्रम चित्ते चितवई, जे ए महा कोइक सिद्ध पुरुष छे । एहस्यु प्राक्रम नहीं । विक्रम आवो हाथ जोडी नमी कहै- हे कृपानिधी ! मुज अपराध खमी तुम्हे प्रसन्न प्रत्यक्ष याओ । ते सांभली कुमुदचंद्र तत्काल उठी कहे, रे अहो ! वि (२२-२ ) क्रम, आ नगर तुज राज्यि किसी अन्याय वाती छ । विक्रम कहेई, ते अन्याय वार्ता कहो । तिवार श्री कुमु दचंद्रई भुरकी विक्रमनई अवंति सुकुमालनो संबंध संभलाव्यो । विक्रमनई मनि संदेह हुआ । कहें तें परमेश्वर श्रीपास अवंतिनी तुम्हे कीर्ति कहो । तिवारें कुमुदचंद्र श्रीपार्श्वनाथ त्रेवीसमा तीर्थंकर तेहनी स्तुति रूपें श्रीकल्याणमंदिर स्तोत्र कहई ई । ते कहितां जेवलिं एकादशम काव्ये श्रीपार्श्व परमेश्वरं पहिलाथी काम राग जीतो छई ते स्तवई । " यस्मिन हरम० ११ एकाव्य कहितां शिवलिंग थकी धूम्रज्वाला मगद हुई । पुनः कुमूदचंद्र बारमा काव्यमा अद्भुत रसिं करी श्रीपार्श्वदेवनो महिमा वर्णव छे । " स्वामिन्नल्पगि० १२ ए. बारभु काव्य कहितां शिवलिंगनो तेज हीण हूओ । पूनः श्रीकुमुदचंद्र तेरमा काव्यमां वीर रसें करी श्रीपार्श्वनां धर्मवीर पशुं वर्णवई छई " क्रोधस्त्वया० १३ ए. तेरम् काव्य कहितां शिवलिंग स्फोट हूई । पिंडीइं विरह हूओ । ते मांही थकी तत्काल ( २३ - १ ) श्रीधरणेंद्र श्रीपद्मावतई सेवीत, पुनः पार्श्वयकक्ष १ वैरोट्या देवीई २ युक्त श्री अवंतिपासनो बिंब प्रगट हुआ ) ते देखी वीक्रम वीस्मय पांम्यो । सकल मनुष्य युक्त श्रीपास प्रणमी बइठो । 17 39 Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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