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________________ जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट. वर्ष त्री । बलमित्र १ भानुभित्र २ श्रीकालिकाचार्यना भाणेज तेहनो राज्य वर्ष साठ | नरवाहन राज्य वर्ष ब्यालीस | गर्द्दभिल राज्य वर्ष तेर । साकी राज्य वर्ष यार | श्री वीर मुक्ति हुआ पछी च्यारसें छनु वर्ष गये दक्षिण दिसें श्री गोदावरी नदीनें कांठ पड़ठाणे भूजंगा aft सानीध थकी श्री शालीवाहनी साको प्रगट हूओ । एवं वर्ष व्यारसेंने सीतरनो मेंल हूओ । श्री वीर मुक्ति हुआ पछी त्रणसेने वीस वर्ष गया पछी मोरीय राजाने राजे श्री आर्य सुहस्ती सूरीने संवाडें ( १७- २ ) पहिला श्री कालिकाचार्य प्रगट हुआ । तिणे सौधर्मेंद्र आगलें निगोदनो विचार रूप विवरी कह्यो । पुन: श्री पन्नवणा उपांग सूत्रना कारक ए चोथा युग प्रधान जांणवा । पुनः बीजा कालिकाचार्य श्री वीर मुक्ति गया पछी ब्यारसेनें त्रेहन वर्ष बीतें बलमित्र - भानुमित्र राजाने राज्ये दक्षण दिसें गोदावरी नदीने कांठे पठाणे राजा श्री शालिवाहनना आग्रह थकी एकतालीस जैनाचार्यनी शाक्षि, श्री पर्व आयें हूते यक्षोत्सवें श्री पर्वनो अंतराय जांणी भाद्रवा सुद पांचमथी चोथ दीने पर्जुषण पर्व कीधो । एहनो विस्तार श्री कालिकाचार्यनि कथा थकी जांणज्यो । [ खंड १ वरस सूधी पसूना वातनों करणहारनो जीव नरके रह्यो वेदना वेदे । यतः महतामपि दानानां कालेन क्षीयते फलम् । भीताभयप्रदानस्य क्षय एव न विद्यते ।। १ ।। ते छागना एहवा वचन सांभली सकल मनुष्यना वृंद छागने पुछें छे-जे तूं कूण छे ? छाग कहे-हुं याचक देवता र्छु । ए अज माहरु वाहन छे । तें माटें तुमें ए धर्म वांछो हो ते सर्व मिथ्या । साचा धर्म्मनी परीक्षा करो, तो श्री प्रीयग्रंथ सूरीने पूछो । तिणें वाडवें गुरुनें धर्म्म पूछयो तिवारे सूरी, यत गाथा - धम्मो मंगलम् ( १८ - २ ) किटं अहिंसासंजमो तवी । देवावि तं नमसंति जस्त धम्मे सया मणो ॥ २ ॥ ए गाथाइ कही । ते सांभली सर्व वाडव प्रतिबोध पांमी दया धर्म्म पत्ये आराधता हुआ । श्रीगुरूंई बोक डानें अभयदानना देणहार जांणी कीर्ति हूइ । एतले ए प्रीयग्रंथ थिंवीरने श्रीवीर सासनें प्रभावक कया । इति प्रियग्रंथ सूरी संबंध | श्री वीर मुक्ति गया पछी च्यारसेनें एकवीस वर्ष गये हूतें श्री इंद्रादिन सूरी स्वर्ग हुआ । हवें लघु गुरु भाइ श्री श्रीयग्रंथ सूरी श्री वीरसासनने प्रभावक हुआ । तेहनो संबंध कहे छे । अजयामेर गढीनी तलहटी हर्ष पूर नगर बसें छे । एकदा तिहां विहार करता श्री प्रीयग्रंथ सूरी आव्या । एहवें छागने होमवानें सकल (१८-१) मंत्रना जाण जन करता उद्यमी हुआ छे । एतले जैन गृहस्थे गुरुनें जागनी वार्त्ता कही । तिवारें श्री गुरुयें सूरी मंत्र वास मंत्री श्रावकने देइ, कह्या जे ए वास बोकडानें माथे ठवज्यो । जिम एहनें अभयदांन हूसे अने शासन पण उन्नत होसें | श्रावके गुरु कथं तिमज कीषु । एटले atest देव अधीष्टत की आकाशे जाइ उभो रह्यो । यागकृत वाडव प्रति मनुष्य भाषायें, अरे विमो ! तुम्हे सांभलो, जेतला पसूनी देहीयें रोम होय तेतला हजार एवं अवसरें प्रथम तिर्थंकर श्री रुषभ पूत्र नमि १ विनमि २ तेहनी शाषायें विद्याधर वंशी श्री वृद्धवादी सूरी तेहना शिष्य श्री सिद्धसेन सूरी श्री काल्याण मंदिर स्तोत्रना करणहार प्रगट हुआ | तिहां प्रथम वृद्धवादी सूरीनो संबंध कहें छे । एकदा विद्यावर शाषाई आ०श्री स्कंद सूरी विहार करता गोड देशें कोसलपूर नगरें आव्या । तिहां मुकूंद नांमे वाडवें वृद्धपणे गुरु वांणी सांभली चूज्यो । चिंतस्युं चितवें, जे शास्त्रने विषे पंडितें कह्यां छें । यथा चतुर्भिः कनकं परीक्षते निवर्षणच्छेदनतापताडनैः । तथाहि धर्मविदुषा परीक्षते श्रुतेन शीलेन तपो ( १९ - १ ) दयागुणः ॥ १ ॥ शिव शासनने विषै ए प्यार आत्मशुद्धिना भेद माहि एके शुद्ध नथी, एक जैन विना । तथा अभिनिवेश मि भ्याविना शास्त्र १ शील २ तप ३ दया परिणाम ४ ए प्यार वाना शुद्ध न कहिए । इम जैन दर्शननी साची Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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