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________________ जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट दिने दिने मंगलमंजुलाली खाटकीए बांणे करी विंधी । मारग विचमा भूमीइं पडी। सुसंपदा सौख्यपरंपरा च । एहवें कोइक जैन गृहस्थे नमस्कार संभलावीओ। ते इष्टार्थसिद्धिः बहुला च बुद्धिः समलीई सांभल्यो । एतले पोताना बालक उपरे मोह न सर्वत्र सिद्धिः सृजता सुधर्मम् ।। १ ।। आण्यो । नवकार सदह्यो । तेहना महिमा थकी मरण अतः कारणात सर्वत्र चंद्र बल तारा बल ग्रह बल दृग् पांमी सीहल द्वीपना राजा श्रीचंद्र घेरे बेटी उपनी । ते बल बाहु बलादिभ्यो बलवत्तरं धर्मबलं विलोक्यते ।।२।। बीजेनैव भवेदी ( १३-२) प्रदीपेन प्रदीपकम। वृधवती हूइ | एकदा पिताने साथें ते कार्यार्थ भृगुकछे द्रव्येणैव भवेद् द्रव्यं भवेनैव भवांतरम् || ३ || आवी (१४-२)। ए बजारें दाटे ऋषभदत्त व्यवहा एहवो उपदेश श्री गुरु मुषनो सांभली; संपति कहे, हे रियाना मुघथकी नोकार सांभली जाती स्मरण पामी कृपानिधी ! उत्तम गतिना जाणहार रूडा जीव, तेहना पाछिलो समली भव दीठो । ते पासें थकी नौकार शिकुंण आचार हुइ ? गुरु कहें हे संप्रति ! हे माहामतिना रख्यो । जैन धर्मि श्रधावंत हुई । जे ठेकाणे बांणे विंधाणी स्वामी, सांभल | उत्तम प्रांणीना एह आचार हूइं । भूमीई पड़ी हूंति तिणहिज ठेकाणे विद्यमान शासन श्री श्लोक वीसमा तिर्थकरनो जांणी बावन्न देवकुलिका सहित अधः क्षिपति कृपणा वित्तं तन्नयियासवः । प्रासाद नीपजावी श्री मुनिसुव्रत स्वामीनो थिंब थाप्यो । संतस्तु गुरुचैत्यादौ तदुचैःपदकांक्षिणः ।। १ ।। ते प्रासाद मांहिं वड वृक्षे समलीनु स्वरूप कीधु । ते एहवा वचन उपगारी गुरुना मुषथी सांभली समकित बालीका सील धर्म आराधी तीव्र तप तपी मरण पांमी लही सूकृत करतो हुओ, संप्रति नप, जिन प्रसाद मंडित इशान बोर्जे देव लोके देवता पणे उपनी | यत: प्रथवी शोभावतो हुओ । तेहनी संख्या-सवा लाष नातन हरिवंशभूषणमणि प्रसाद निपजायतो हूओ | तेहनें बारणे में हजार धर्म भृगुकच्छे नर्मदासरे तारे | शाला निपजावी । सवाकोटी श्री जीनबिंब कीधा । ते श्री शकुनीकाविहारे माहि पंचा' हजार धातूना बिंब । शेष बिंब उपलना मुनिसुव्रतजिनपतिर्जयति ।। १ ।। राता, पीला, सांम, स्वेत, जाणवा | इग्यार हजार वापिका इति शकुनीका वीहार उत्पत्ति ।।। तथा कूड नीपजाव्या । कोइ तेरा हजार पण कहें । छत्रीस पुनः संप्रतिये उत्तर दिस मरूधरि धंधाणि नगरि हजार जिर्णोद्धार निपजाव्या । ते किम, दिन प्रतें एक श्री पद्मप्रभ स्वामीनो प्रासाद बिंब नीपजाव्यो । वीजाप्रासाद जीर्णोद्धार नापजानी (१४--१) वधामणी गौरी पासना प्रासाद निपजान्यो । ब्रह्माणी नगरी श्री आवे, ते द्वारपालक बीजे दीनें कहें । एटले संप्रतिनु हमीर गहीं श्रीपास प्रासाद बिंब नौपजाव्यो । इलार आयु वर्ष सोनुं जाणवू | ! अनें सो वर्षना दिवस छत्रीस गिरि सिघरे श्री नमी बिंब थाप्यो ( १५-१ ) । ते दक्षण हजार हूया। ए..प्रमाणे जीर्णोद्धार जाणावा । ते मांहि मुख्य दिसें जाणवी । पूर्व दिसि रोहिसगीरें श्रीसूपासनो प्रासाद जीर्णोद्धार श्री समलीका वीहारनो नीपजाव्यो। बिंब नीपजाव्यो । पछिमें देवपतनें पूनः इढर गढें श्री __ हवे ते श्री शक्नुनिका विहारनी उत्पत्ति कहे छे । श्री शान्तिनाथनो प्रासाद बिंब निपजान्यो | पूनः पून: नर्मदा उपकंठे भृगु क्षेत्रि कोरंटक वने आम्ली वृक्ष एक संप्रति स्व प्राक्रमे त्रिखंडाधीश मंगल श्रेणी निमितें सदैव समली पोताना बालक सहित रहे छे । ते निरंतर पोताना सूर्योदये अष्टोतरी, एकवीस भेदी, सत्तर भंदी, अष्ट बालकने पोखे । एटले बाटकी वीचारे जे ए समली भेदी, नवपदादी, मन पवी श्री जिन भक्ति साचवें । चांचस्यू सबलो मंस बिगाडे छे। एटले समली आवी पूनः श्री सिद्धगीरी | १ | रेवंतगीरी । २। श्री शंषेचांच पूढे मांस खंड लेइ वड वृक्ष साखायें बेठी । तेतले स्वर । ३ । नंदीय । ४ । ब्राह्मण वाटक | ५ । रथ Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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