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________________ १४४ जैन साहित्य संशोधक. नियमी ते भद्रबाहुनी कृति मानी शकाय # तथा स्थ- देरासरोमां तीर्थकरोनी मूर्तिनी पूजा करती वखत ज विरावली ते संभावित रीत सिद्धान्तना संपादक देवविं स्तुति अगर स्तवना बोलवामां आवे छे, तवी एक' स्तगणीनो ज करेलो उमेरी कही शकाय. आ उपरांत बनामां (चैत्य वंदनमा ) स्त्र कल्याणकोन वर्णन करेलु छ. प्रो. वेबर जे सूचवे के के महावीरनुं चरित्र पण देवर्धि- जिनचरित्रोनो मुख्य संबंध पण आ कल्याणकोनी साथेज गणिर्नु ज रचलं छे ते वात मने मान्य थई शक्ती नथी. होय एम स्पष्ट जणाय छे. अने आ बाबत एम साबीत कारण के आ ग्रंथ जो आटला बधा प्रसिद्ध पुरुषने। रचला करे के के तीर्थकरोनी भक्तिमां कल्याणकोनुं वर्णन करहोय तो पछी संप्रदाय आ बाबतने बिलकूल विस्मृत बानी प्रथा वणीज प्राचीन छे. आम जो न मानवामां थबा दे ते तद्दन अशक्य छे. आवे तो एनो निर्णय करवो अशक्य थई पडश के कल्पस्थवीरावलीना संबधमां नोखी बाबत छे. कारण के तने सूत्रमा वर्णवेला आ शुष्क विषयन आटलं लांबु वर्णन चार अगर पांच भिन्न भिन्न यादीओ उपरथी संकलित करवान लेखकने केम मन थयुं हशे. कीने ग्रंन्थना संपादक जिनचरित्रोनी पाचळ मात्र कल्पसूत्रना भिन्न भिन्न भागा गम त समयमां रचाया मूकी दीधेली छ. जिनचरित्रोनी भाषाशैली उप- होय परंतु एटलं तो चोकस छ के आ ग्रंथ एक हजार रथी आपणे तर्क करी नथी शकता के तेनो कयो करतां पण वधारे वर्षोथी जैनोमा अत्यंत सन्मान पात्र भाग समाचागथी पछीनो हशः कारण के विषयनी बनेला छे. आटला माटे पूर्वना पवित्र पुस्तकोना अनवाद भिन्नताने लईने तेवी जातनो शैलीभेद तो आचारंग सूत्रनी संग्रहमां आ ग्रंथने स्थान मळवु उचित छे. एना संबपहेली बे चूला अने त्रीजी चूलामां पण नजरे पड़े छ ज. धमां मारी इच्छा तो एटलीज होय के जे ग्रंथावलीमा तेमज जिनचरित्रोनी प्राचीनताना विरुद्धमा दलील रूपे ते प्रकाशित थवानो छ ते ग्रंथावलीने योग्य मारो अनआपणे वर्ण्य वस्तुना अल्पत्वने पण बतावी वाद पण सुंदर बने. परंतु आ कर्तव्यमां केटलेक अंश शकीए नहीं. कारण के आटली हकिकतो जोहुं निष्फळ निवड्यो जणाउं तो वाचको आ बाबत आपवानो हेतु एक जीवन चरित्र लखवानो न होई मात्र ध्यानमा लेशे के गमे तेटला तेने खेडवाने प्रयत्नो थया भक्ति-मार्ग पण होई शके. आम कहेवार्नु कारण ए छे के छतां पण ज साहित्य हजी सुधी आपण माटे एक अ__ * “समाचारी" महावीर पछी छ पेटीमो दीत्या बादरचा क्षत भूमि तुल्य ज छ तेवा (साहित्य) ना ग्रंथोने ईशे ते बाबत ३-८ द्वारा स्पष्ट जणाय छे. पण ते आना परकीय भाषामा अनुवाद करवानो मारो आ प्रयत्न छ. पण कदाच अर्वाचीन हाय ता ते पण असंमवित नथी. कारण अने तेथी क्षमा मळशे एवी मन आशा छे. के ६मा गणधरोना शिष्यांनी तुरत पछी भावनार स्थवीरोने, 'आ समयना श्रमण निग्रन्थोथी विरुद्ध अगर विलक्षणता वाला समाप्त. जणाला छ. छतां पण आ ग्रन्थ-माग बधारे अर्वाचीन होय तेम तो नज मनाय. कारण के २८-१० मा जणाय छ के ? चतुर्विशति तीर्थ कराणां पूजा' नामनी एक डेक्कन कॉलेजेम पाछळना समयमा बनेलु हतुं तेम जिनकल्पना व्यवहार जनी हस्तलिखित अर्वाचीन प्रतिमा पूजा विधिनु वर्णन तेमज त्यां सुधी लुप्त थय न होतो. आवां केटलांक स्तोत्र या चत्य वंदना पण आप्यां छे. Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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