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________________ जैन साहित्य संशोधक १९० वळी सरखावो: - ' हे भिक्षुओ ! मांस खावाना हेतुथी हणाएला प्राणीनुं मांस जाणी जोईने कोईए खावुं नहीं. जे कोई ए प्रमाणे करशे ते “दुक्कत " अपराध करशे. हे भिक्षुओ ! अदृष्ट, अश्रुत, अने अशंकित एम त्रण प्रकारे जे मांस शुद्ध होय ते खावानी हुं रजा आपुं हुं. " ( महावग्ग ६, ३१ ना अंतमां ) वळी. " हे मूर्ख ! (मांस क्यांथी आव्युं छे ते ) तपास्या विना तुं शी रीते ते मांस खाई शके ?...हे भिक्षुओ ! तपास कर्या वगर कोई पण मांस खावुं नहीं " ( तेज ग्रंथ ६, २३) बीजो नियम ए छे के मांस काचुं न होवु जोईए ( ब्रह्मजाल सुत्त १०, अंगुत्तरनिकाय १९३-१९९, मज्झिमनिकाय, ३८ विगेरे ) संघमा दाखल थता नवा पुरुषो माटे वारंवार कहेवामां आव्युं छे के " तेओ काचुं (अन्न) स्वीकारता नथी [ तेओ काचुं मांस स्वीकारता नथी. ]” छेवटे महावग्ग (५, २३ ) मां एक विचित्र आज्ञा करवामां आवी छे—अने हुं जाणुं हुं त्यां सुधी अन्यत्र तेजोवामां आवती नथी. ते स्थळे माणसनुं, हाथीनं घोडानुं, कुतरानुं, सर्पनुं, सिंहनुं, वाघनुं, चित्तानुं, दीपडानुं, रींछनुं अने तरनुं मांस त्यजवा विषे कहेवामां आव्युं छे. आने आपणे व्यासनी यादीना ( जुओं उपर ) अवशिष्ट भाग तरीके गणी शकीए. अहिंसोपदेशक धर्मना एक महान् प्रवर्तक मांसना उपभोगने धिक्कारे नहीं; मांसाहारनो सर्वदा त्याग कर्या सिवाय पोताना मनोविकारोने जीतवानी एक भिक्षु इच्छा राखे; आ बधुं, जेम अत्यारे पण बौद्धधर्मना परि चयमां, जे विचार शील पुरुषो आवे छे तेमने, एक न समजी शकाय एवी गुंचवण लागे छे, तेम ते समये पण घणा माणसोने आ विचार आश्चर्यजनक अने अतर्क्य लागतो हतो. परंतु ए एक सारी बात छे, के आ विचारनो बुद्ध पोते शी रीते निराकरण करता हता तेनो एक पुरावो आपणने मळी आवे छे. सुत्तनिपातना आमगंध सुत्तमां कोई एक पुरुष बुद्ध ने संबोधे छे; " अने पछी पोताना वनस्पतिमोजीपणानुं [ खंड १ २२ वर्णन अने प्रशंसा करीने कहे छे के "स्वच्छताने (आमगंध एटले खराब गंधने ) मारी साथे कोई संबंध नथी. आम तमे कहो छो ( अने वळी) हे ब्रह्मबंधु ! सारी रीते तैयार करेल पक्षीना मांस साथे मेळवेला भात तमे खाओ छो, तेथी हे काश्यप ! हुं तमने पूछु छु के तमे अशुद्धतानो शो अर्थ करो छो ? " आनो बुद्ध उत्तर आपे छे के: " जीवतां प्राणिओने दुभव, मारवां, कापवां, बांधवां, चोरी करवी, असत्य भाषण करं, छल अने कपट कर, सार वगरनुं वाचवुं तेनुं नाम अशुद्धता छे; पण मांसभक्षण नहीं. " आनी पछी आ प्रकारना बीजा छ श्लोको आवे छे जे दरेकनी अंते; " आ ते अशुद्धता छे; पण मांसभक्षण नहीं " आ शब्दो होय छे. अने तेमां कहे छे के " मत्स्याहार के मांसाहारनो त्याग, नम्रभ्रमण, मस्तकमुंडन, जटाधारण, धूल - निर्माल्य - भस्मधारण, अग्निहोम, आ सर्व, मायामांथी जे पुरुष मुक्त नथी तेने पवित्र करी शकता नथी. वेदाध्ययन, गुरुदान, देवयजन, धर्म अथवा शीत सहनद्वारा आत्मदमन, अने एवा बीजां, अमृतत्वनी इच्छाथी करवामां आवेलां तपो, मायाथी बद्ध पुरुषने पवित्र करी शकता नथी. " २३ अलबत्, ए वात तो स्पष्ट ज छे के ऊपर जे प्रकारो वर्णवेला छे तेमां मांसने भिक्षुना मोजनना एक आवश्यक भाग तरीके तो स्थान आपवामां आव्यु नथी ज, पण सहेलाईथी जेनो सर्वदा त्याग करी शकाय एवा अपवाद रूपे ज मांसने स्थान आपेलुं छे. तथापि बुद्ध तेनो सर्वथा निषेध करवा इच्छता न हता. अने तेम करवामां तेमने मुख्य कारण, पोताना उपदेशनुं ए एक स्पष्ट अने शाश्वत उदाहरण बताववानी तेमनी इच्छा हती के आहारना प्रश्नने धार्मिक शुद्धि-विशुद्धि साथै बिलकुल संबंध छे नहीं. " 66 मांसना आ नियत उपयोग सिवाय, आपणा प्रस्तुत विषयमा बौद्ध अने जैन साधुओर्मा विशेष भेद नहीं हतो. जैन साधुनी जेम बौद्ध साधुने पण कालजीपूर्वक कोई पण प्राणीनी हिंसाथी दूर ज रहेवानुं हतुं सुत्तनिपातमां ( धम्मिक सुत्त १९ ) पण कध्रु छे के: Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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