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________________ जैन साहित्य संशोधक [खंड १ पण एनो उल्लेख दुर्लभ छे; तत्त्वार्थाधिगम सूत्रमा पण सौ कोई सहेलाईथी समजी शके छ के वस्तु सत्स्वरू. ते उपलब्ध नथी. पण आना जेवी देखाती चर्चा झग- पछे. पण वस्तु असत्स्वरूप छे अने वळी एक साथे ते वती सूत्रमा मळी आवे छे. नयचक्रना कर्ता मल्लवादी सदसद्रूप छ, एम सांभाळीने तो धणा डाह्या माणसो "नय " ना सिद्धान्त माटे आगम प्रमाण आपती आश्चर्य पाम्या वगर रहे नहि. ज्यारे एलीयाना मुसाफरे वखते भगवती सूत्रना केटलांक वाक्यो टांके छे. गौतम थीएटेटसने कां के “ अमुक अर्थमां " असत् छे, गणधर भगवान महावीरने पूछे छे 'भगवन् ! आ मा अने “ सत् ” नथी " त्यारे तेना मननी स्थिति एवीज ज्ञान [ मय ] छे के नहि ? ' स्वामी समझावे छे थई हशे. एने जो एम कहेवामां आव्युं होत के “ सद'गोतम ! नियमे करीने ज्ञान [मय ] छे. कारण के, सद्रूपं वस्त्वङ्गीकर्तव्यम् ” त्यारे पण तेना मनमां एवोज ज्ञाननी आत्मा विना वृत्ति देखाती नथी; पण आत्मा ज्ञान भाव थात. परंतु असत् अथवा अभाव शब्दनो अर्थ पण होय अने अज्ञान पण होय ( आया पुण सिय जरा वधारे उंडाण साथे समजवामां आवे तो आ बाबत णाणे सिय अन्नाणे )"" अहिं आ — सिय ' शब्द ए समजवी सहेली थई पडे. प्लेटो ना सोफीस्ट नामना 'स्यात् ' नुं प्राकृत रूप छे, ते लक्षमा राखवा जेतुं छे. संवादमां एलीयानो मुसाफर कहे छ के-"ज्यारे आपणे आ उपरथी जणाय छ के, आ सिद्धांतना बीज जो के असत् विषे बोलीए छीए त्यारे, हुं धारु छ के, आपणे जुना आगमोमां मळी आवे ए शक्य छे छतां आ सत्थी विरुद्ध एवी कोई वस्तु विषे बोलता नथी पण विशिष्ट स्वरूप तो तेना करतां अर्वाचीन छे. आ सिद्धांत आपणे फक्त अन्यना अर्थमां वापरीए छाएँ." एना आ स्वरूपमां तो सौथी पहेलो कुंदकुंदाचार्यना न्यायदर्शनमा चार प्रकारना अभाव मानेला छे-१) पंचास्तिकायमा अने प्रवचनसारमा मळी आवे छे. प्रागभाव, २) प्रध्वंसाभाव. ३) अत्यन्ताभाव अने दिगंबरो कुंदकुंदाचार्यने घणा प्राचीन गणे छे ४) इतरेतराभाव, आमां पहेला त्रण वस्तुना स्वरूपने तेमनी परंपरा प्रमाणे तेओ विक्रमनी पहेली शता- लगता छ ज्वारे इतरेतराभाव ए अन्य वस्तुनी अपेक्षाए ब्दीमां थएला छे. ते पछीना तो जैन न्यायना-श्वेतांबर तेनो अभाव छे. आ तत्त्व वस्तुओने तेमना विशिष्ट अने दिगंबर बनेना-प्रत्येक ग्रंथमा ए सिद्धान्तनी स्फुट स्वरूप अर्षे छे अने आ अर्थमां जैन आचार्यों कहे छे के चर्चा मळी आवे छे अने तेना विषयमा दरेकनो समान वस्तु सदसदप छे; सत्-स्वभावनी अपेक्षाए, अने असत्मत छे. अन्यवस्तुनी अपेक्षाए. आ सिद्धि करवा जैन आचार्यो आ सिद्धान्तनी प्रमाणनी दृष्टिए चर्चा कर्या पहेलां जेवी रीते चर्चा करे छे अने जे प्रमाणो आपे छे ते तेमां वस्तुस्वरूपना जे तत्वो रहेलां छे तेनी चर्चा कर्याथी जाणवा जेवा छे. तेथी तेनुं संक्षिप्त स्वरूप हुँ अहिंया विषय समजवामां बधारे सरळता थशे. आपुं छ. सर्वनयानां जिनप्रवचनस्यैव निबन्धनत्वात् । किमस्य निबन्धनमिति चेत्-उच्यते-निबन्धनं चास्य 'आया भन्ते नाणे ३."...... In certain sense not-being is, अन्नाणे' इति स्वामी गौतमस्वामिना पृष्टो व्याकरोति ‘गोदमा and that being, on the other hand, is णाणे नियमा।' अतो ज्ञान नियमादात्मनि । ज्ञानस्यान्यव्य- not." पा. ३७० वा.४ The Dialogues of तिरेकेण वृत्त्यदर्शनात् । Plato- (त्रिजी आवृत्ति.) -आया पुण सिय णाणे सिय अन्नाणे।' 8" When we speak of not-being, -नयचक्र, द्रव्यार्थस्यादस्ति प्रकरणने अंते. आ उतारामाटे हुँ पज्य मुनिश्रीजिनविजयजीनो आभारी छ. we speak, I suppose not of something . २ पंचास्तिकाय, अधिकार १, गाथा ८, १४. प्रवचनसार, opposed to being, but only different." स्कन्ध २,गाथा २२-२३. . पा. ३६१ वा. ४. Dialogues of Plato. Aho I Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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