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________________ अंक ४] दक्षिण भारतमें ९ वीं-१० वीं शताब्दीका जैन धर्म । और कनकनन्दि । वीरनन्दि रचित एक 'चन्द्रप्रभ · नन्दिके शिष्य थे । गोम्मटसारके उल्लेखानुसार कनकचरितं ' नामका ग्रन्थ है जिसके अंतमें लिखा है कि नन्दि इन्द्रनन्दिके शिष्य थे । इससे नेमिचन्द्रकी वे अभयनन्दिके शिष्य थे," और अभयनन्दि गुण- गुरुपरंपराका टेबल इस प्रकार होता है । ५० " णमिऊण अभयणंदिं सुदसायरपारगिंदणंदिगुरुं । ' गुणनन्दि वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ।।" तथा अभयनन्दि इन्द्रनन्दि " वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलासिद्धतं । सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिढें ।।" वीरनन्दि कनकनन्दि (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड | ) ५१ "बभूव भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पतुर्मुनीनां गणमृत्समानः। नेमिचन्द्र सदग्रणीर्देशिगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥ [ यह लेख, आरासे जो द्रव्यसंग्रहकी इंग्रेजी आवृत्ति मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः प्रकाशित हुई है, उसकी प्रस्तावनाका अविकल अनुवाद सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । स्वरूप है, ऐसा पीछेसे उसके साथ मिलान करनेसे अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी मालूम हुआ है। स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलोकैकबन्धुः ।। -संपादक जै. सा. सं.] भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमते स्वत् समानत्विषः २ वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं । शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत् । स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य मुवनप्रख्यातकीर्तेः सतां सिरिकणयणन्दिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिटं ।। संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतर्काङ्कुशाः ॥" ( गोम्मटसार, कर्मसार, गा० ३८६) [चन्द्रप्रभचरितप्रशस्तिः । श्लोकः १, ३, ४,] Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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