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________________ अंक ] दक्षिण भारतमें ९ वीं-१० वीं शताब्दीका जैन धर्म । राजमल्लका एक अधीन-शासक था । उसकी माताने ओंके दर्शनार्थ यात्रा प्रारंभ की । देव गोम्मटेश्वरके पद्म पुराणका पाठ सुनते समय यह सुना कि पौदनपुरमें सम्बन्धमें बहुत कुछ सुनकर, वह मार्गमें श्रवण बेलगोल बाहुबलीकी एक मूर्ति है । इस लिए अपने पुत्रसमेत क्षेत्रमें जा पहुंचा । वहां उसने गिरे पड़े मन्दिरोंका वह उस मूर्त्तिके दर्शनको चली, परन्तु मार्गमें एक जिर्णोद्धार किया और अन्य विधानोंके साथ पंचामृतपहाडीपर, जहां भद्रबाहु स्वामीका देहान्त हुआ था स्नान की भी प्रक्रिया कि । दैनिक, मासिक, वार्षिक उसने स्वप्न देखा जिसमें पद्मावती देवीने उसे दर्शन एवं अन्य उत्सवोंके संचालनके, लिए उसने सिद्धान्तादेकर कहा कि उसी पहाडीपर बाहुबलीकी एक मूर्ति है चार्यको मठका गुरु नियत किया । मठमें उसने एक जो पत्थरोंसे आच्छादित है, और जिसकी पूर्व समयमें 'सत्र' स्थापित किया जहां यात्रियोंके लिए भोजन राम, रावण, और मन्दोदरीने पूजा की थी । फिर औषध और शिक्षाका प्रबन्ध था । उसने अपनी जातिदूसरे दिन एक बाण मारनेसे बाहुबलीकी मूर्ति दृष्टि- वालोंको इस लिए नियत किया, कि वे तीनों वर्गों के गोचर हुई। यात्रियोंकी, जो दिल्ली, कनकाद्रि, स्वित्पुर, सुधापुर, इस प्रकार जैनियोंकी किम्बदन्तियोंके अनुसार यह पापापुरी, चम्पापुरी, सम्मिदगिरि, उज्जयन्तगिरि, जयपता लगता है कि चामुण्डरायने उस मूर्तिको नयी नगर आदिस्थानोंसे आवे, आदरपूर्वक सेवासुश्रूषा करें । निर्माण नहीं कराया, किन्तु उस पहाडीपर एक मूर्ति इस कार्यके लिए मन्दिरमें कई ग्राम लगादिए गए । विद्यमान थी जिसकी उसने सविधि स्थापना और प्रतिष्ठा उसने चारों दिशाओंमें शिला-शासन लगवा दिए । कराई । इन लोक-कथाओंके अनुसार प्रवण बेलगोलके १०९ वर्षों तक उसके पुत्रपौत्रोंने इस दानको नियप्रधान पुरोहितने भी यह कहा था, कि प्राचीन कालमें मित रक्खा "33 इस स्थानपर एक मूर्ति थी, जो पृथ्वीसे स्वतः निर्मित अब हमें इस बातका निर्णय करना उचित है कि हुई थी, और जो गोम्मटेश्वर स्वामीके स्वरूपकी थी। यह बात कहांतक ठीक है कि चामुण्डराय श्रवण बेलउसकी राक्षसराज रावण सुखप्राप्तिके हेतु उपासना करता गोळकी गोम्मटेश्वरकी मूर्तिका केवल अनुसन्धानकर्ता था | चामुण्डरायको यह विदित होनेपर उसने कारीगरों था । मुजबली चरित्र अथवा बाहुबली चरित्र नामक द्वारा उस मूर्तिके सब अंगोको उचित रूपसे सुडौल ग्रन्थ संस्कृत छन्दोंमें है, और उसमें केवल जनश्रुतिबनवाया । उसके सब अंग मोक्षकी इच्छासे ध्याना- योंका समुच्चय है, और कई मुखोंतक पहुंचनेके कारण वस्थित गोम्मटेश्वर स्वामीके असली स्वरूपके समान थे। उनमें विचित्रता आगई है । इस ग्रन्थका रचनाकाल उसने उनके चारों ओर बहुतसे मन्दिर और भवन ठीक ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता। परन्तु इसकी बनवाए । उनके बनजानेपर उसने बड़े उत्सव एवं ले उनके बनजानेपर उसने बढे उत्सव vd लेखशेलासे यह अनुमान किया जा सकता है कि यह भक्ति-पूर्वक मूर्तिकी उपासनाका क्रम प्रारंभ किया. ३२ गाम्मटेश्वरकी मूर्तिके स्थापनाके बहुत काल पश्चात् बना होगा । राजावली कथे जैन इतिहास, किम्बदन्ती, स्थल-पुराणसे उद्धृत एक अवतरणमें यह लिखा है जो आदिका बृहत् संग्रह है जिसको वर्तमान शताब्दीके पूर्वउपरोक्त कथासे मिलता-जुलता है । भागमें माईसोर राजवंशकी एक महिला देवी रम्मके __ स्थल-पुराणमें वर्णित कथा । निमित्त मलेपूरकी जैनसंस्थाके देवचन्द्रने रचा था । " चामुण्डराजने सपरिवार, पदनपुरस्थित-देव गोम्म- ३३" स्थल पुराण" से लिया हुआ केप्टेन आई. एस. एफ. टेश्वर एवं उसके आसपास स्थित १२५४ अन्य देवता- मेकेंजीका अवतरण ( इन्डियन एन्टीक्वेरी, भाग २, पृ० ३२ वेली पागलका ऐतिहासिक और किम्बदन्तियोंके आधार पर वर्णन.( एशियाटिक रिसर्च, भाग ९, पृ. २६३.) ३४ देखो, लु. रा. का श्रवण बेलगोल, भूमिका पृ. ३, (१८८९). Aho I Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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