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________________ १३० जैन साहित्य संशोधक। . [ख तीन दिनोंके व्रतसे शरीर त्याग दिया। मारसिंह द्विती- “जिसकी उसके स्वामीने नोलम्बराजसे युद्धके समय यकी समाधिका लेख कूगे ब्रह्मदेव खंम नामक स्तम्भके इस प्रकार प्रशंसा की थी " जो वज्ररूप दांतोंसे शत्रुके निम्न भागमें चारों ओरके शिलालेखोंमें विद्यमान है । वह हाथियोंके मस्तकको विदीर्ण करता है और जो शत्रुरूपी स्तम्भ श्रवण बेलगोल (माइसार) की चन्द्रगिरी पहाडियों- हिंस्र जीवोंके लिये अंकुशके समान है । ऐसे हाथीवत् पर स्थित मन्दिरोंके द्वारपर है। यद्यपि इस लेखमें आप जब वीर ने वीर योद्धाओंके सन्मुख विराजमान हैं तो कोई तिथि नहीं लिखी है, तथापि मारसिंह द्वितीयके ऐसा कौन नृप है जो हमारे कृष्णबाणोंका ग्रास न बने"। मृत्युकी तिथि एक दूसरे शिलालेखके आधारपर सन “जो नृप रणसिंहसे लडते हुए इस प्रकार गर्ज कर ९७५ ई० निश्चय की गई है। बोला, " हे नृपति जगदेकवीर! तुम्हारे तेजसे मैं एक चामुण्डराय। क्षणमें शनु को जीत सकता हूं, चाहे वह रावण क्यों चामुण्डराय या चामुण्डराज इस महान् नुपतिक, न हो, उसकी पुरी लंका क्यों न हो, उसका गढ त्रिकूट सुयोग्य मंत्री था । इस मन्त्रीके शौर्यही के कारण मार- क्यों न हो, और उसकी खाई क्षारसमुद्र क्यों न हो ।” सिंह द्वितीय वजलसे तथा गोनूर और उच्छंगीके रण- “जिसको स्वर्गागनाओने यह आशीर्वाद दिया था क्षेत्रोंमें विजय प्राप्ति कर सका । श्रवणवेलगोलके एक “हम लोग इस वीरके बहुतसे युद्धोंमें उसको कण्ठालिंशिलालेखमें चामुण्डराय की इस प्रकार प्रशंसा की हुई गनसे उत्कंठित हुई थीं, परन्तु अब उसकी सड्गकी है-" जो सूर्यकी भांति ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी उदयाचलके धारके पानीसे हमलोग तृप्त हुई हैं । हे रणरंगसिंहके शिरको मणिकी नाई भूषित करता है; जो चंद्रमाकी विजेता ! तुम कल्पांत तक चिरंजीव रहो । जिसने भांति अपने यशरूपी किरणोंसे 'ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी सम- चलदंकगंग नृपतिकी अभिलाषाओंको व्यर्थ कर दिया. द्रकी वृद्धि करता है, जो ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी खानियुक्त- जो अपने मुजविक्रमसे गंगाधिराज्यके वैभवको हरण पर्वतसे उत्पन्न मालाका मणि स्वरूप है और जो ब्रह्मक्षत्र करना चाहता था; और जिसने वीरोंके कपालरत्नोंके प्याले कुलरूपी अग्निको प्रचण्ड करनेके हेतु प्रबल पवनके बना कर और उनको वीरशत्रुओंके शोणितसे भरकर समान है। ऐसा चामुण्डराय है । खूनके प्यासे राक्षसोंकी अभिलाषाको पूर्ण कियाँ।" उपरोक्त "कल्पान्त क्षुभित समुद्र के समान भीषणबलवाले और शिलालेख स्वयं चामुण्डराजका लिखा हुआ अपना वर्णन पातालमल्लके अनुज वज्जलदेवको जीतनेके हेतु इन्द्र है । परन्तु ऐसा जान पडता है इस शिलालेखका अधिनृपतिकी आज्ञानुसार, जब उसने भुजा उठाई; तब क भाग अप्राप्य है । ऐसा मालूम देता है कि हेग्गडे उसके स्वामी नृपति जगदेकवीरके विजयी हाथीके सन्मुख कन्नने, अपने लिए केवल अढाई पक्तिओंका लेख लिखशत्रुकी सेना इस प्रकार भाग गई जैसे दौडते हए नेके लिए, चामुण्डरायके मूल-लेखको तीन ओर अच्छी हाथीके सन्मुख मृगोंका दल | तरहसे घिसा दिया; और केवल एकही ओरके लेखको ४ देखो, लुईसराईस रचित 'श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं ३८। ५देखो, मेलागानिका शिलालेख जिसको लुईस राईसने अपने 'श्रवण बेलगोलके शिलालेखोंकी भूमिकाकी पाद टीकामें उद्धृत किया है । पुनः देखो, एपिग्राफिया इन्डिका, भाग ५, शिलालेख नं. १८। ६ इन चतुर्थ, तृतीय कृष्णका पौत्र-देखा 'एपियाफिया इन्डिका' भाग ५, लेख नं० १८ ॥ ७-८ "ब्रह्मक्षत्रकुलोदयाचलशिरोभूषामणिानुमान् ब्रह्मक्षत्रकुलाब्धिवर्द्धनयशोरोचिः सुधादीधितिः । ब्रह्मक्षत्रकुलाकराचलभवश्रीहारवल्लीमाणिः ब्रह्मक्षत्रकुलाग्निचण्डपवनश्चामुण्डराजोऽजनि ॥ कल्पान्तक्षुभिताब्धिमीषणबलं पातालमल्लानुजम् जेतुम् वज्जलदेवमुद्यतभुजस्येन्द्रक्षितीन्द्राज्ञया । Aho I Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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