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________________ जैन साहित्य संशोथक. बा ल न्या य [ लेखकः-श्रीयुत चंपत रायजी जैन, बारिष्टर-एट-लॉ.] (प्रथम वक्तव्य) अध्यापकजी! यह लेख जो आपके सम्मुख उपस्थित है। बालकों अर्थात् छठी, सातवीं और आठवी कक्षाके छात्रों को न्यायमें प्रवेश करानेके लिये लिखा गया है | “युरुपीय-न्याय" तो कालिजहीमें अध्ययन कराया जाता है। किन्तु यह प्रकट है कि जो मनुष्य प्राकृतिक न्यायको जानता है, वह बिना कालिज तक पढे भी उचित नतीजा निकाल सकता है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राकृतिक न्याय अत्यन्त सरल और सुबोध है । मेरा विचार है कि छठी, सातवी और आठवी कक्षाके बालकोंको भले प्रकार "न्याय" की शिक्षा दी जा सकती है। इसमें योग्यता केवल अध्यापकमें होनी चाहिये, जो कि प्रत्येक पाठ तथा दृष्टान्त भलाभांति विद्याथींको समझा दे । इस शिक्षामें स्मरण शक्तिपर बलात् बल डालनेकी कोई आवश्यकता नहीं-यदि छात्रको समझा दिया जाय । और न इसमें कोई बात ऐसी ही है, कि उपरोक्त छात्र भलीभांति न समझ सके । इससे स्वयं छात्रकी नैतिक शक्तियां न्यायका प्रतिबिम्ब हो जायंगी, और उसका मन स्वयं न्यायमें प्रवृत्त होने लगेगा | आशय यह है, कि यदि बालकों की समझमें न्याय न आय तो अध्यापक महाशयकी त्रुटि है और किसीकी नहीं । "न्याय"के गुणोंके बारेमें भी इतना कहना उचित प्रतीत होता है कि बिना इसके जाने हुये बुद्धि तीक्षण नहीं होती, और जो इसको जानता है उसीका जीवन सफल समझना चाहिये । न्याय ही की बदौलत भारत बर्षके प्राचीन कालमें ऋषि, मुनि और विद्वान पंडितगण सारे संसारमें प्रख्यात हो गये । और न्यायके जाते रहने हीका यह फल है कि वर्तमान कालमें भारतमें चारों ओर अविद्या और अज्ञान फैला हुआ है । अतः जो मनुष्य देश और जातिके शुभचिंतक हैं, उनका कर्तव्य है कि वे यथासंभव शैशवकालहीमें अपनी सन्तान और छात्रोंके मनको “न्याय" में प्रवृत्त करावें । इसप्रकार "न्याय" में प्रवेश करनेके अर्थ उचित है कि छठी-सातवीं कक्षा तक तो येही पाठ-जो आप लोगों के सन्मुख उपस्थित हैं-पढाये जायं । तत्पश्चात् आठवीं श्रेणीमें " न्याय दोपिका" "परीक्षा मुख" अथवा इसी प्रकारकी किसी अन्य पुस्तका अध्ययन कराया जाय । इस प्रकार छात्रोंमें न्यायकी योग्यता स्वयं बढती जायगी। Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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