SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक) डॉ. हर्मन जेकोबीनी कल्पसूत्रनी प्रस्तावना. परंतु, जैन प्राकृत अशोकना शिलालेखोनी अथवा जोई शके छे. प्राचीन सूत्रोनी भाषा जेने हुँ जैन प्राकृत वैयाकरणोनी मागधी भाषा साथे घणंज थोडं प्राकृत कहुं छं ते जैन महाराष्ट्रीथी फेटलीक बाबमळता पणुं धरावे छे. तेम छतां जैनो पोते तेने तोमांजूदी पडे छे. जेम के, ज्यारे जैन महाराष्ट्री 'मागधी' कहे छे. हेमचंद्रे पोताना प्राकृतव्याकर- भाषाना पुल्लिंगना प्रथमा तथा सप्तमीना एकवचनणना चोथा पादना २८७ मा सूत्रनी व्याख्यामां ना रूपोने अंते 'ओ' अने ' -मि' अनुक्रमे जे अर्धी गाथा उद्धृत करेली छे तेमां लख्यु छ के आवे छे, त्यारे जैन प्राकृतमां तेना स्थाने अनुक्रमे प्राचीन सूत्रो एकली अर्धमागधी भाषामांज लखा- 'ए ' अने ' -सि ' आवे छे. उदाहरण तरीके, एलां हताः जै० म०-'सक्को, ' जै० प्रा०-'सके,' सं०पोराणं अद्धमागहभासानिअयं हवइ सुत्तं ॥ शक्रः, जै० म०-वरांमि, ' 'मोलिमि, ' साहुं हेमचंद्र आ स्थळे पोतानुं टिप्पण करे छे के, मि' जै० प्रा०- वरंसि, कुच्छिंसि,' साहुंसि. जो के आवो परंपरागत वृद्ध संप्रदाय छे, परंतु, अव्यय भूतकृदन्तने अंते जैन महाराष्ट्रीमा साधारण मागधी भाषानं जे लक्षण आगळ उपर आपवामां रीते ' ऊणं, ''ऊण,' अथवा 'उं' आवे छे. आवशे ते जैन प्राकृतने लागु पडतुं नथी; अर्थात् परंतु तेनाथी प्राचीन एटले जैन प्राकृत भाषामां तेने जैन प्राकृत मागधीथी भिन्न छे. अंते 'इत्ता ' अगर ' इत्ता णं ' आवे छे. दाखला जैनोनी पवित्र भाषाना स्वरूपनं निरूपण करवा तरीके जै० म०- काऊणं,' 'नाऊणं. गंतआगळ वधीए तेनी पहेला आपणे एटलं ध्यानमां णं,' • काऊण, ' 'काउं' इत्यादि; जै. प्रा०राखवं जोईए के तेमनी प्राकृत भाषामां बे भेदो 'करित्ता, '-' जानित्ता, '-'गच्छित्ता,' अथ. देखाई आवे छे.१-प्राचीन गद्य ग्रंथोनी भाषा, अने, वा, 'करिता णं' इत्यादि. जैन-प्राकृतमां अद्यतनभत २-टीकाकारो अने कविओनी भाषा. जे भाषामा रह्यो छे,परंतु जैन महाराष्ट्रीमां तेने बदले सामान्यरीते प्राचीन गद्य ग्रंथो लखाया छे ते भाषा घणे अंशे भूत कृदंत आवे छे. आवा साधारण भेदो उपरांत, टीकाकारो अने कविओनी भाषाथी भिन्न छे. टीका- जैन प्राकृतमा घणा आर्ष शब्दो, रूपो तथा वाक्यांकारो अने कविओनी भाषा महाराष्टी छे. अने ते शो पण मळी आवे छे, जे जैन महाराष्ट्रीमाथी बहि. प्राकृत व्याकरणना पहेला पादमा जे नियमो आपे- कृत थया छे. ला छे तेने सर्वथा अनुसरनारी छे. परंतु साथे ए. जैन महाराष्ट्रीना स्वरूपना संबंधमां तो कोई पण पण जाणवू जरूरनु छे के हेमचंद्रनी महाराष्टी ते शंकाने स्थान ज नथी. कारण के हेमचंद्रे तेना सं'हाल, ' ' सेतुबन्ध,' अने नाटकोनी महाराष्टी बंधमा स्पष्टरीते वर्णन आप्यु छ. ए भाषा एकंदररीभाषा साथ एकभाव धारण करती नथी. आ बन्ने ते ' हाल ' नीज महाराष्ट्रा भाषा छे. एम छतां वच्चे बे मोटा स्पष्ट भेदो छे. एक तो-आद्यरूपे बन्ने वच्चे जे भेदो दृष्टिगोचर थाय छे ते तेनी उत्पअथवा द्वित्वरूपे दन्त्य 'न' नो उपयोग थाय ॐ त्तिस्थानना भेदने लईने छे. मारा मानवा प्रमाणे ते, अने बीजो 'यश्रति 'नो व्यवहार छे. आ जैन महाराष्ट्री सुराष्ट्रनी भाषा साथे घणोज निकट भाषा के जन उचितरीते जैन महाराष्ट्र कही शका- संबंध धरावनारी छे. केम के परंपरागत हकिकतने य तेनु हेमचंद्रे संपूर्ण लक्षण आप्यु छे. आ लक्षण १आ आश्चर्यकारक कथा मूळ रूपे हु थोडाज समयमा प्रककालिकाचार्य कथा जेवा एक अर्वाचीन निबंधमां ट करवा इच्छं छ. कारण के, तेनी अंदर केटलीक साची पण पूर्णरीते प्रयुक्त थएळ कोई पण वाचक स्पष्ट अने ऐतिहासिक परंपराना मुद्दाओ रहेला छे, Aho Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy