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________________ जैन साहित्य संशोधक। [ भाग की प्रशस्तिका वह महत्त्वका भाग, जिसमें कर्ताने शसे उस नगरीमें, उस राजाने एक जिनमंदिर स्वकीय गुरुपरंपरा आदिका परिचय दिया है, कुछ बनवाया था। उनके शिष्य देवगुप्त नामक हुए जो विस्तत होने पर भी उसे यहां पर उद्धत कर देनेके सिद्धान्तोके ज्ञाता और कशल कवि थे। उनकी लोभका हम संवरण नहीं कर सकते । प्रशस्ति इस कीर्ति आज भी जगत्में फैल रही है। उनके बाद प्रकार है सिवचन्द्र गणी महत्तर नामके आचार्य हुए। उन्होंअस्थि पयड़ा पुरीण पव्वइया नाम रयणसोहिल्ला। ने देशमेंसे (पव्वइया नगरीवाले प्रदेश से 1 ) आ. तत्थट्रिएण भुत्ता पुहई सिरितोरसाणेण ॥ कर भिल्लमाल (जिसे श्रीमाल भी कहते हैं) नगरमें तस्स गुरू हरियतो आयरिओ आसि गुत्तवंसीओ। निवास किया। उनके यक्षदत्त गणी नामक क्षमा तीए नयरीए दिन्नो जिणनिवेसो तहिं काले॥ श्रमण गुणधारक प्रसिद्ध शिष्य हुए जिनके अनेक तिस्स बहकलाकसलो सिद्धन्तवियाणभो कई दक्खो। शिष्योने गुजरात देशमे देवमांदर (जिनमंदिर) आयरियदेवगुत्तो अज्जवि विज्जरए कित्ती (?)॥ बनवा कर उसकी शोभा बढाई । इनके शिष्य आसिवचन्दगणी अह मयहरो त्ति सो एत्थ आगओ देसा। श्रमण हुए जिनके मुखका दर्शन करके अभव्य जीव गासवप्प नगरमें रहनेवाले वडेसर नामक क्षमा सिरिभिल्लमालनयरम्मि संठिओ कप्यरुक्खो व्व ॥ भी प्रशान्त हो जाता था। वडेसरके तत्तायरिय तस्स खमासमणगुणो नामेणं जक्खदत्तगणिनामो। नामके बडे तपस्वी और आचारधारक शिष्य हुए। सिस्सो महइमहप्पा आसि तिलोएवि पयडजसो।।५॥ इन्हीं तत्तायरियके शिष्य दाक्षिण्याचन्ह हुए, जितस्स य सीसा बहुया तववीरियलद्धचरणसंपण्णा । न्होंने हीदेवीके दर्शनसे प्रसन्न हो कर इस कुवरम्मो गुज्जरदेसो जेहिं कओ देवहरएहिं॥ लयमाला कथाकी रचना की। आगासवप्पनयरे बड़ेसरो आसि जो खमासमणो। इस प्रकार इन गाथाओंमे, अपनी मूल पूर्व गुरुतस्स महदसणे च्चिय अवि पसमा जो अहव्वोवि॥ परंपराका जिकर करके कथाकारने फिर अनन्तरको तस्स य आयारधरो तत्तायरिओत्ति नाम सारगणो। ३ (११-१३) गाथाओंमें अपने विशिष्ट उपकारी गुरुओं-पूज्योंका सविशेष उल्लेख कर, उनके प्रति आसि तवतेयनिज्जियपावतमोहो दिणयरो व्व ॥ ॥ अपनी कृतज्ञता प्रकट की है। इस गाथा-कुलकका जो दूसमसलिलपवाहवेगहीरन्तगुणसहस्साण । अर्थ इस प्रकार हैसोलंगविउलसालो लग्गणखंभो व्व निकंपो ॥ 'इच्छित फलके देनेवाले, और कीर्तिरूप कुसुमोसे सीसेण तस्स एसा हिरिदेवीदिन्नदसणमणेण । अलंकृत होनेके कारण नवीन कल्पवृक्षके समान रइया कुवलयमाला विलसिरदक्खिन्नइंधेण ॥१०॥ दीखाई देनेवाले, आचार्य वीरभद्र तो जिसके सिदिनजहिच्छियफलओ बहुकित्तीकुसुमरेहिराभोओ। द्धान्तोके पढानेवाले गुरु हैं, और जिन्होंने अनेक आयरियवीरभद्दो अवा (हा ) वरो कप्परुक्खो व्व ग्रन्थोंकी रचना कर समस्त श्रुत (आगमों) का सो सिद्धन्त [म्मि] गुरू, पमाण नाएण (अ)जस्स हरिभद्दो " सत्यार्थ प्रकट किया है वे आचार्य हरिभद्र जिसके प्रमाण और न्यायशास्त्रके सिखानेवाले गुरु हैं। बहुगन्थसत्थावत्यरपयड़ समत्तसुन सच्चत्या ॥ तथा, क्षत्रियवंशोत्पन्न वडेसर नामक राजाका जो राया [य] खत्तियाणं वसे जाओ वडेसरो नाम । पुत्र है और उद्योतन जिसका मूल नाम है उसने तस्सुज्जोयणनामो तणओ अह विरइया तेण ॥ यह कथा निर्मित की है।' इन गाथाओंमेंसे, प्रथमकी १० गाथाओंमें कथा- इस गाथाकुलकमें हरिभद्रसूरिके लिये बहु ने अपनी मल गरुपरंपराका वर्णन दिया है ग्रन्थ प्रणेतृत्व' और 'प्रमाण न्यायशास्त्रविषयक जिसका तात्पर्य यह है:-पहले हरिदत्त नामके गुरुत्व' के विषेशण जो साभिप्राय प्रयुक्त किये एक गुप्त वंशीय आचार्य हुए। वे पव्वइया पुरी के गये हैं उनसे विचारवान् विद्वान् स्पष्ट जान सकते तोरसाण नामक राजाके गुरु थे और उनके उपदे- हैं कि, कथाकर्ता यहां पर जिन हरिभद्रका स्मरण Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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