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________________ अंक १] हरिभद्र सूरिका समय निर्णय । ३९ दुर्गस्वामीको दीक्षा अपने हाथसे दी होगी, परंतु श्लोकमें सिद्धर्षि अनागतं परिज्ञाय' ऐसा गुरुतया देल्लमहत्तरका नाम प्रकट किया होगा वाक्य-प्रयोग करते हैं । 'अनागतं' शब्दका (ऐसा प्रकार आज भी देखा जाता है और दूसरे यहां पर दो तरहसे अर्थ लिया जा सकता हैजने ग्रन्थों में इस प्रकारके उदाहरणोंके अनेक उल्ले- एक तो, यह शब्द सिद्धर्षिका विशेषण होसकता है। से भी मिल आते हैं )। सिद्धर्षिको भी उन्होंने या और इसका विशेष्यमा(मुझको) यह अध्याहृत रहता तो दुर्गस्वामीके ही नामसे दीक्षा दी होगी, अथवा है; इस विचारसे, इसका अर्थ 'अनागत याने भअपने नामसे दीक्षा देकर भी उनको दुर्गस्वामीके विष्यमें होनेवाले ऐसे मुझको जानकर' ऐसा होता स्वाधीन कर दिये होंगे, जिससे शास्त्राभ्यास है। दूसरा यह शब्द क्रियाविशेषण भी बन सकता आदि सब कार्य उन्होंने उन्हींके पास किया होगा। है, और उसका व्याकरणाशास्त्रकी पद्धति अनुसार और इस.कारणले सिद्धाषन मुख्य कर उन्होका गु- 'अनागतं यथा स्यात तथा परिज्ञाय' ऐसा शाब्दरुतया स्वीकृत किये होंगे । यह चाहे जैसे हो; परंतु , परतु बोध होता है । इसका अर्थ 'अनागत याने भावकहनेका तात्पर्य यह है कि सिद्धर्षिकी प्रशस्तिके प्यमें जैसा होगा वैसा जान कर ' ऐसा होता है। पाठसे तो उनके गुरु दुर्गस्वामी और साथमें गर्ग गग- दोनों तरहके अर्थका तात्पर्य एक ही है और वह सात होते हैं। ऐसी दशामे यहां पर, यह प्रश्न यह है कि सिद्धर्षिके विचारसे हरिभद्रका ललित. उपस्थित होता है कि डॉ. जेकोबीके कथनानुसार सिद्धर्षिको धर्मबोध करनेवाले सूरि यदि उपकारकी दृष्टिसे है । इससे यह स्वतः स्पष्ट ' विस्तरारूप बनानेवाला कार्य भविष्यत्कालीन साक्षातरूपस आचार्य हरिभद्र हा हात ता फिर किरिभटने ललितविस्तरा किसी अपने समा'घे उन्हींके पास दीक्षा ले कर उनके हस्तदीक्षित सत नकालीन शिष्यके विशिष्ट बोधके लिये नहीं बनाई शिष्य क्यों नहीं होते ? गर्गर्षि और दुर्गस्वामीके * थी। और जब ऐसा है तो, तर्कसरणिके अनुसार यह शिष्य बननेका क्या कारण ?. इसके समाधानके लिये डॉ. जकोबीने कोई विचार नहीं किया। अन्वयार्थ पहले श्लोकके साथ सम्बन्ध रखता है। प्रभावक पाठक यहां पर हमसे भी इसी तरहका उलटा प्रश्न चरित्रमें इसी क्रमसे थे श्लोक लिखे हुए भी उपलब्ध हैं। यह कर सकते हैं कि जब हमारे विचारसे हरिभद्र (देखो, पृ० २०४) सिद्धर्षिके साक्षात् या वास्तविक गुरु नहीं थे तो ' '३५ मुनि धनविजयजीने चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारमें फिर स्वयं उन्होंने 'अनागत' शकदका प्रसिद्ध अर्थ जो 'भविष्यत् 'वाचक है उसे छोड कर और कई प्रकारके विलक्षण अर्थ किये ऐसा उल्लेख क्यों किया? इस उल्लेखका क्या मत- हैं और उनके द्वारा सिद्धर्षिका हरिभद्रसूरिके समान काल में होना साबित किया है। धनविजयजीके ये विलक्षण अर्थ एस प्रश्नका यद्यपि हमको भी अभी तक इस प्रकार हैं:-"अनागत' याने बौद्धमेंसे मझको (सिद्ध. प ._naana ' याने होंगे यथार्थ समाधान नहीं हुआ है, तथापि इतनी र्षिको) नहीं आया हुआ जान कर; अथवा, 'अनागत' बात तो हमें निश्चितरूपसे प्रतीत होती है कि हार- याने जनमतसे अज्ञात जान कर; तथा, 'अनागत' याने भद्रका सिद्धर्षिको कभी साक्षात्कार नहीं हुआ भविष्यमें मैं बौद्धपरिभावितमति हो जाऊंगा, ऐसा जान कर; था। प्रमाणमे, प्रथम ता सिद्धाषका हा उल्लख पुन: 'अनागत' याने आगमनकर्ताका भिन्नत्व ( ? ) जान ले लिया जाय । उपमि० की प्रशस्तिमेंके हरिभद्रकी | कर-अर्थात् २२ वीं वार बौद्धर्ममेंसे मुझे नहीं आता जान मांसावाले जो तीन श्लोक हम पहले लिख आये हैं कर; फिर, 'अनागत' याने पूर्णयोधको प्राप्त हुआ न जान नोका तीसरौं श्लोक विचारने लायक है। इस कर; चैत्यवन्दनका आश्रय ले कर, श्रीहरिभद्रसूरिने मेरे '' ३४ असलमें यह श्लोक दूसरा होना चाहिए और जो प्रतिबोधके लिये ललितविस्तरा वृत्ति बनाई । इस तरह का हाय वह तीसरा होना चाहिए। क्यों कि इस श्लोकका 'अनागतं' परिज्ञाय इस श्लोकका अर्थ संभवित लगता है(!)।' लेष है ?। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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