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________________ ته مه نیه تیرها بی مهنية مية با ما در میمه ترانه ها و . هی بیت نه ای به دام به في اره نية له ووعيه لي. تا ما بيه امه به به تایبه ت به ئه ره ده . و بره. م १] हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय। इस अनुमानकी, उपमितिभवप्रपंचाके प्रथम प्र- “कथाकी प्रशस्तिके अन्तमें सिद्धर्षि लिखते हैं स्तावमें सिद्धर्षिने जो हकीकत लिखी है उससे, कि, यह ग्रन्थ, संवत् ९६२ के ज्येष्ठ शुक्ल ५मी गुरुपुष्टि भी होती है। वहां पर, भिक्षक निष्पण्यक वारके दिन जब चन्द्र पुनर्वसु नक्षत्रमें विद्यमान आत्मसुधारके प्रारंभसे ले कर अन्तमें जब वह था, तब समाप्त हुआ। इसमें यह नहीं लिखा हुआ अपना कुत्सित भोजन फेंक देता है और पात्रको है कि, यह ९६२ का वर्ष वीर, विक्रम, गुप्त, शक धोकर स्वच्छ कर डालता है; अथोत् आलंकारिक आदिमेसे कौनसे संवत्सरका है । यदि यह वर्षे भाषाको छोड कर सीधे शब्दों में कहें तो, जब वह विक्रम संवत्का मान लिया जाय तो उस दिनके दीक्षा ले लेता है तब तक उस भिक्षुकको-इस सारे विषयमें लिखे गये वार आदि सब ठीक ठीक मिल समय में-धर्मबोधकर गरु उपदेश देने वाले और जाते हैं। विक्रम संवत् ९६२ के ज्येष्ठ शुक्ल ५मी के ' रास्ता बतानेवाले वर्णित किये गये हैं। सिद्धर्षि दिन ईस्वी सन् ९०६के मई मासकी १ली तारीख स्वयं कहते हैं कि इस रूपककथामें वर्णित धर्मबोधः आती है । उस दिन चन्द्रमा सूर्योदयले लेकर कर गुरु आचार्य हरिभद्र ही है, और भिक्षुक निष्पु- मध्यान्हकालके बाद तक पुनर्वसु नक्षत्र में था। ण्यक स्वयं मैं ही हूं। इससे स्पष्टतया जाना जाता वार भी गुरु ही था । परंतु इस वर्षको वीर संवहै कि सिद्धर्षिको दीक्षा लेने तक सद्बोध देनेवाले त माने तो उस दिन ई. स. ४३६ के मई मासकी और सन्मार्ग पर लानेवाले साक्षात हरिभद्र ही थे। ७वीं तारीख आती है । वार उस दिन भी गुरु ही "यद्यपि सिद्धर्षिके स्वकीय कथनानुसार वे आता है , परंतु चंद्रमा सूर्योदयके समय पुष्य हरिभद्रके समकालीन ही थे, परंत जैनग्रन्थोक्त नक्षत्रमें रह कर फिर दो घंटे बाद अश्लेषा नक्षत्र दन्तकथा, इन दोनों प्रसिद्ध ग्रन्थकारोके बीच में चला जाता है । इस लिये नक्षत्र बराबर नहीं शताब्दी जितना अन्तर बतलाती है। जैन परंपरा मिलता। अतः प्रस्तुत संवत् वीरसंवत् नहीं होना मुताबिक हरिभद्रका मृत्यु संवत् ५८५ में हुआ था चाहिए । दूसरी बात यह है कि, यदि इसे वीरसंवत् और उपमितिभवप्रपश्चाकी रचना. रचयिताके उले- माना जाय तो वह विक्रम संवत् ४९२ होता है और खानुसार ९६२ में हुई थी। हरिभद्र और सिद्ध- इससे तो सिद्धर्षि अपने गुरु हरिभद्र, जो दंतकर्षिके बीच में समय-व्यवधान बतलानेवाली दन्त- थाके कथनानुसार विक्रम संवत् ५८५ में स्वर्गस्थ कथा १३ वे शतकमें भी प्रचलित थी, ऐसा मालम हुए, उनसे भी पूर्वमे हो जानेवाले सिद्ध होते हैं। देता है । क्यों कि प्रभावकचरित्रकार हरिभद्र और इस लिये सिद्धर्षिका संवत् निस्सन्देह विक्रम संवत् सिद्धर्षिके चरित्रोंमें, इन दोनोंके साक्षात्कारके ही है और वह इ. स. ९०६ बराबर है। विषयमें कुछ भी नहीं लिखते। यद्यपि, वे इनके सम- “जैन परंपरा प्रचलित दन्तकथा मुजब हरिभयके सूचक वर्षोंका उल्लेख नहीं करते हैं, तथापि, द्रका मृत्यु समय विक्रम संवत् ५८५ (ई. स. ५२९) इन दोनोंको वे समकालीन मानते हों ऐसा बिल- अर्थात् वीर संवत् १०५५ है । यह समय हरिभद्र के कुल मालूम नहीं देता । क्यों कि वैसा मानते तो ग्रन्थों में लिखी हुई कितनीएक बातोंके साथ सम्बद्ध इनके चरित्रों में इस बातका अवश्य उल्लेख करते। नहीं होता । षड्दर्शनसमुच्चय नामक ग्रन्थमें हरि. तथा इन दोनोंके चरित्र जो दूर दूर पर दिये हैं, भद्र दिग्नाग शाखाके बौद्धन्यायका संक्षिप्त सार -हरिभद्रका चरित्र ९ वे सर्गम और सिद्धषिका १४ देते हैं, उसमें प्रत्यक्षकी व्याख्या ' प्रत्यक्षं कल्पना. वे सर्ग दिया है-वैसा न करके पासपासमें देते । .. पोढमभ्रान्तं ऐसी दी हुई है । यह व्याख्या न्यायप्रस्तुत विषयमें इस दन्तकथाके वास्तविक मूल्यका निर्णय करनेके लिये हरिभद्र और सिद्धर्षिकै समय बिन्दुके प्रथम परिच्छेदमे धर्मकीर्तिकी दी हुई विचारकी, और उसके साथ सम्बन्ध रखनेवाले व्याख्याके साथ शब्दशः मिलती है। दिग्नागकी दूसरे विषयोंकी पर्यालोचना करनी आवश्यक है। व्याख्या ' अभ्रान्त ' शब्द नहीं मिलता उनकी Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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