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________________ जैन साहित्य संशोधक | २२ ( १ ) ' ये पुन: कुगुर्वादिसङ्गत्या सम्यग्दर्शन चारित्राणि वमन्ति ते शुभधर्मवासं प्रतीत्य वाम्याः । बौद्धसङ्गत्यैकविंशतिकृत्वोऽर्हद्धर्मत्या गिश्री हरिभद्रसू रिशिष्यपश्चात्तदुपज्ञललितावस्तराप्रतिबुद्धश्री सिद्धवत् । - उपदेशरत्नाकर, पृ० १८ ' " ( २ ) ' मिथ्यादृष्टिसंस्तवे हरिभद्रसूरिशिष्यसि साधुर्ज्ञातम् स सौगतमत रहस्यमर्मग्रहणार्थं गतः । ततस्तैर्भावितो गुरुदत्तवचनत्वान्मुत्कला पनायागतो गुरुभिर्बोधितो बौद्धानामपि दत्तवचनत्वान्मुत्कलापनार्थ गतः । एवमेकविंशतिवारान् गतागतमकारीति । तत्प्रतिबोधनार्थं गुरुकृतललित विस्तराख्यशक्रस्तववृत्त्या दृढं प्रतिबुद्धः श्रीगुरुपार्श्वे तस्थौ । ' - श्राद्धप्रतिक्रमणार्थ दीपिका । इस प्रकार इन ग्रन्थकारोंके मतसे तो सिद्धर्षि साक्षात् हरिभद्रसूरि ही के हस्त-दीक्षित शिष्य थे। इनके मतको कहां तक प्रामाणिक समझना चाहिए, यह एक विचारणीय प्रश्न है । क्यों कि ये तो सिद्धर्षिके दीक्षागुरु, जो गर्गमुनि हैं और जिनकी पूर्व - गुरुपरंपरा तकका उल्लेख सिद्धर्षिने स्वयं अपनी कथाकी प्रशस्तिमें किया है, उनका सूचन तक बिल्कुल नहीं करते और खुद हरिभद्र ही के पास इनका दीक्षा लेना बतलाते हैं । सो यह कथन स्पष्टतया प्रमाण विरुद्ध दिखाई दे रहा है। सिवा सिद्धर्षि जैसे अपूर्व प्रतिभाशाली पुरुषको इस तरह २१ वार इधर उधर धक्के खिलाकर एक बिल्कुल भोंदूके जैसा चित्रित किया है इस लिये इनके कनकी किंमत बहुत कम आंकी जा सकती है । सिद्धर्षिके जीवन सम्बन्धी, प्रभावक चरित्र और प्रबन्धकोषके लेखकोंके उक्त मतोसे कुछ भिन्न एक तीसरा मत भी है जो पडिवाल गच्छकी एक प्राकृत पट्टावली में मिलता है । यह पट्टावली कबकी बनी हुई है और कैसी विश्वसनीय है; सो तो उसे पूरी देवेविना नहीं कह सकते । मुनि धनविज यजीने चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार नामक पुस्तकमें, इस पट्टावलीमेंसे प्रस्तुत विषयका जो पाढ उद्धृत [भाग १ किया है उसी परसे हम यहां पर यह तीसरा मत उल्लिखित कर रहे हैं । इस पट्टावलीके लेखक के गर्गमुनि ही थे- हरिभद्र नहीं । हरिभद्र और सिद्धमतसे सिद्धर्षिके मूल दीक्षागुरु तो गर्गाचार्य या र्षिके गुरुशिष्यभावके सम्बन्धमे पट्टावलीकारका कथन इस प्रकार है: - पूर्वोक्त कथानुसार, बौद्धसंसर्गके कारण जब सिद्धर्षिके विचारोंमें वारंवार परिवर्तन होने लगा तब उनके गुरु गर्गर्षिने हरिभद्रसूरीको, जो बौद्धमत के बड़े भारी ज्ञाता थे, विज्ञाति की कि कोई ऐसा उपाय कीजिए कि जिससे सिद्धर्षिका मन स्वधर्ममें स्थिर हो जाय। फिर सिद्धर्षि जब अपने गुरु के पास पुनर्मीलन के लिये आये तब हरिभद्रने उनको बहुत कुछ समझाया परन्तु वे सन्तुष्ट न हुए और वापस बौद्ध मठ में चले गये । इससे फिर हरिभद्रने तर्कपूर्ण ऐसी ललितविस्तरा वृत्ति बनाई। इसके बाद हरिभद्रका मृत्यु हो गया । मरते समय वे गर्गाचार्यको वह वृत्ति सौंपते गये और कहते गये कि अब जो सिद्धर्षि आवें तो उन्हें यह वृत्ति पढनेको देना । गर्गाचार्यने बाद में ऐसा ही किया और अन्तमें उस वृत्तिके अवलोकनसे सिद्धकिा मन स्थिर हुआ । इसी लिये उन्होंने हरिभद्रको अपना गुरु माना और उस वृत्तिको ' मदर्थ निर्मिता ' बतलाई ।" २- इस पट्टावली में, सिद्धर्षिके गुरु गर्गाचार्य और उनके गुरु दुर्ग स्वामीके स्वर्गमनको साल भी लिखी हुई है । यथा 'अह दुग्गलामी विक्कमओ ९०२ वरिसे देवलोयं गतो । तस्सीसो सिरिसेणो आयरियपर ठिओ । गग्गायरियावि विकमओ ९९२ वरिसे कालं गया तप्पर सिद्धायरिओ । एवं दो आयरिया विहरई ।' अर्थात् दुर्गस्वामी विक्रमसंवत् ९०२ में स्वर्गगये । उनके शिष्य श्रीषेण आचार्य पद ऊपर बैठे । गर्गा - चार्य भी विक्रम संवत् ९१२ में मरणशरण हुए । उनके पट्ट पर सिद्धर्षि बैठे । इस प्रकार श्रीषेण और सिद्धर्षि दोनों आचार्य एक साथ रहते थे । यदि यह कथन सच है तो इसके ऊपरसे सिद्धर्षिके दीर्घायु होने का अनुमान किया जा सकता है । क्योंकि उनके गुरु गर्गस्वामी जब ९१२ में मृत्यु प्राप्त हुए थे, तो कमसे कम १०-१२ वर्ष पहले तो सिद्धर्षिने उनके पास दक्षा अवश्य ही की Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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