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________________ जैन साहित्य संशोधक। [भाग १ चाररूप विषको निकाल कर सुवासना-सद्विचार प्रबन्ध सिद्धर्षिका जो जीवन वर्णित है उसमें इस स्वरूप सुधा (अमृत) का सिंचन किया है, उस बातका किश्चित् भी जिकर नहीं किया गया है कि, आचार्य हरिभद्रको नमस्कार हो।। हरिभद्र, सिद्धर्षिके एक गुरु थे और उनसे उन(१७ ) उन्होंने (हरिभद्रसूरिने) अनागत याने को धर्मबोध मिला था। हरिभद्र और सिद्धर्षिके भविष्यमे होनेवाले मुझको जानकर मानो मेरे ही बीचमें एक प्रकारसे गुरुशिष्यका सम्बन्ध था, इस लिये चैत्यवन्दनसूत्रका आश्रय लेकर ललित- यातका सूचन प्रभावकचरित्रकारने न हरिभद्र ही विस्तरा नामक वृत्ति बनाई है। के प्रबन्ध किया है और न सिद्धर्षि ही के प्रबन्ध इस अवतरणसे ज्ञात होता है कि सिद्धर्षि हरि- में । केवल इतना ही नहीं, परंतु इन दोनोंके चरित्रभद्रको एक प्रकारसे अपने गुरु मानते हैं। वे उन्हीं प्रबन्ध पास पासमें भी वे नहीं रखते । उन्होंने से अपनेको धर्मप्राप्ति हुई कहते हैं, और ललित- हरिभद्रका चरित्र ९ वे प्रबन्धमे गुंथा है और सिविस्तरावृत्ति नामक ग्रन्थ, जो हरिभद्र के ग्रन्थों से धर्षिका १४ वे प्रबन्धमे । इस लिये प्रभावकचरिएक प्रसिद्ध ग्रन्थ है उसे, अपने ही लिये बनाया त्रकारके मतसे तो हरिभद्र और सिद्धर्षिके बीच गया बतलाते हैं। इस प्रकार, इस प्रशस्तिगत न किसी प्रकारका साक्षात् गुरुशिष्य जैसा सम्बकथनके प्रथम दर्शनसे तो हरिभद्र और सिद्धर्षिके न्ध था और न वे दोनो समकालीन थे।। बीचमें गुरु-शिष्यभावका होना स्थापित होता है। परन्तु, सिद्धर्षिने अपनी कथाकी प्रशस्तिमें जो और जब ऐसा गुरुशिष्यभावका सम्बन्ध उनमें उक्त प्रकारसे हरिभद्रका उल्लेख किया है, उसे रहा तो फिर वे प्रत्यक्ष ही दोनों समकालीन सिद्ध प्रभावकचरित्रकर्ता जानते ही नहीं है यह बात हुए, और वैसा होने पर हरिभद्रका उक्त गाथा- नहीं है। उन्होंने सिद्धर्षिका वह कथन केवल देखा विहित सत्ता-समय असत्य साबित होगा। ही नहीं है किंतु उसे अपने प्रबन्धमे यथावत् उद्ध इस प्रकार हरिभद्रसूरिके समय-विचारमें सि त तक कर लिया है। परंतु, उस कथनका सम्बन्ध द्धर्षिका सम्बन्ध एक प्रधान स्थान रखता है । इस वे और ही तरहसे लगाते हैं । उनका कहना है कि, लिये प्रथम यहां पर इस बातका ऊहापोह करना सिद्धर्षिने जैन शास्त्रोंका पूर्ण अभ्यास करके, फिर आवश्यक है कि सिद्धार्षिके इस कथनके बारेमें उन- न्यायशास्त्रका विशिष्ट अभ्यास करनेके लिये किसी के चरित्रलेखक जैन ग्रन्थकारोंका क्या अभि- प्रान्तस्थ बौद्ध विद्यापीठमें जा कर रहनेका विचार प्राय है। किया। जानेके पहले उन्होंने जब अपने गुरु गर्गसिद्धर्षिके जीवनवत्तान्तकी तरफ इधिपात कर- स्वामीक पास अनुमति मांगी तो गुरुजीने अपनी ते हैं तो, उनके निजके ग्रन्थमें तो, इस उपर्यत असम्मति प्रकट की और कहा कि वहां पर जानेप्रशस्तिके कथनके सिवा, और कोई विशेष उल्लेख से तेरा धर्मविचार भ्रष्ट हो जायगा । सिद्धर्षिने नहीं मिलता। इस लिये उनके निजके ही शब्दों में गुरुजीके इस कथन पर दुर्लक्ष्य कर चल ही दिया तो अपनेको यह बात नहीं मालूम हो सकती, कि, और अपने इच्छित स्थान पर जा कर बौद्ध प्रमाण हरिभद्रको वे अपने धर्मबोधकर गुरु किस कारण- शास्त्रका अध्ययन करना शुरू किया। अध्ययन से कहते हैं और ललितविस्तरावृत्तिको अपने ही करते करते उनका विश्वास जैनधर्म ऊपरसे ऊठता लिये बनाई गई क्यों बतलाते हैं । गया और बौद्ध धर्म पर श्रद्धा बढती गई। अध्यपिछले जैन लेखकोंके लेखों-प्रन्थों में सिद्धर्षिके यनकी समाप्ति हो जाने पर, उन्होंने बौद्धधर्मकी जीवन-वृत्तान्तके विषयमें जो कथा-प्रबन्धादि दीक्षा लेनेका विचार किया, परंतु, पहले ही से उपलब्ध होते हैं, उनमें कालक्रमकी दृष्टिसे सबसे वचनबद्ध हो आनेके कारण, जैनधर्मका त्याग प्राचीन, तथा वर्णनकी दृष्टिसे भी प्रधान, ऐसा करनेके पहले वे एक वार अपने पूर्वगुरुके पास मिप्रभावकचरित्रान्तर्गत सिद्धर्षि-प्रबन्ध है । इस लनेके लिये आये । शान्तमूर्ति गर्गमुनिने सिद्धर्षि. Aho ! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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