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________________ जैन साहित्य संशोधक। [भाग प्रकरण' में, और समयसुंदर गणिने स्व-संगृहीत जाता है । अतः यह उल्लेख भी हरिभद्रसूरिके 'गाथासहस्री' नामक प्रबन्ध भी उद्धृत की है। गाथोक्त समयका संवादी गिना जाता है। पुनः इसी गाथाके आशयकोले कर कुलमंडनसूरिने' मुनिसुन्दरसूरिका उल्लेख इस प्रकार है'विचारामृतसंग्रह' में, और धर्मसागर उपाध्यायने अमृद् गुरुः श्रीहरिभद्रमित्रं तपागच्छगुर्वावली में,लिखा है कि, महावीर निर्वाणके पश्चात् १०५५ वें (वीर नि. ४७० अनन्तर श्रीमानदेवः पुनरेव सूरिः । विक्रम संवत्की शुरुआत, तदनन्तर ५८५४७० + यो मान्यतो विस्मृतसूरिमन्त्रं ५८५=१०५५) वर्षमें हरिभद्रसारिका स्वर्गवास लेभेऽम्बिकाऽऽस्यात्तपसोजयन्ते ॥ हुआ था । इन पिछले दोनों ग्रंथकारोंका कथन ---गुर्वावली ( यशोवि. पं. काशी) पृ. ४॥ क्रमशः इस प्रकार है(१) 'श्रीवीरनिर्वाणात् सहस्रवर्ष पूर्वश्रुतव्यव- सूरिका सत्ता-समय विक्रमकी ६ ठी शताब्दी है इस प्रकार इन सब ग्रंथकारोंके मतसे हरिभद्रच्छिन्नम् । श्रीहरिभद्रसूरयस्तदनु पञ्चपञ्चाशता वर्ष. और उनका स्वर्गवास सं. ५८५ (ई. स. ५२९) दिवं प्राप्ताः।' -विचारामृतसंग्रह । में हुआ था। (२) श्रीवारात् पञ्चपञ्चाशदाधिकसहस्रवर्षे विक्र- . व परंतु, इसी प्रकारके बाह्य-प्रमाणों में, कुछ ऐसे " भी प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनके कारण इस मात् पश्चाशत्यधिकपञ्चशतवर्षे याकिनीसनः श्रीहरिभ- गाथोक्त समयकी सत्यताके बारेमें विद्वानोंको द्रसूरिः स्वर्गभाक्। -तपागच्छगुर्वावली। बहुत समयसे संदेह उत्पन्न हो रहा है । इन - मुनिसन्दरसूरिने जो तपागच्छकी पद्यबद्ध गर्वा- प्रमाणामे, जो मुख्य उल्लेख योग्य है, वह बहुत महवली (संवत् १४६६) बनाई है उसमें हरिभद्रसरि-त्वका और उपयुक्त समयसाधक प्रमाणोंसे भी को मानदेवसूरि (द्वितीय) के मित्र बतलाये हैं। बहुत प्राचीन है। यह प्रमाण महात्मा सिद्धर्षिके इन मानदेवका समय पट्टावलियोकी गणना और महान ग्रन्थ उपमितिभवप्रपञ्चा कथाम उल्लिखित मान्यता अनुसार विक्रमकी ६ठी शताब्दी समझा है। यह कथा संवत् ९६२ के ज्येष्ठ शक्ल पंचमी, है । क्यों कि ५.५का विक्रम-वत्सर महावीर संवत्:०५५ के. र गुरुवारके दिन, जब चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्रमें स्थित बराबर (४७०+५८५१०५५) ही होता है। प्रद्यनसूरि था, तब समाप्त हुई थी। ऐसा स्पष्ट उल्लेख, इस कथाकी प्रशस्तिमें सिद्धर्षिने स्वयं किया है । यथासंगृहीत दूसरी प्रारुत गाथा इस प्रकार हैपण पन्न-दस-सएहिं हरिसूरी आसि तत्थ पुषकई ।। संवत्सरशतनवके द्विषष्टिसहितेऽतिलचन्ते चास्याः। . तेरसवरिससएहिं मईएहि वि बप्पपिहू ॥ ज्येष्ठे सितपञ्चम्या पुनर्वसौ गुरुदिने समाप्तिरभूत ॥ पिटर्सन, रिपोर्ट ३. पृ. २७२। __ ययपि ग्रन्थकर्ताने यहां पर मात्र केवल 'संवत्' २० समयसुन्दरगणिने गाथासहस्री सं. १६८६ में बनाई शब्द ही का प्रयोग किया है जिससे स्पष्टतया यह है । देखो,-पि.रि. ३, पृ. २९०।। -विचारसार प्रकरण और गाथासहस्रीमें प्रस्तुत गाथा २३ धर्मसागरगणिने अपनी पावलिमें इसी पद्यका समा. के चतुर्थ पादमें कुछ पाठ-भेद है, परंतु अर्थ-तात्पर्य एक नार्थक एक दूसरा पद्य उध्दृत किया है । यथाही होनेसे उसके उल्लेखकी कोई आवश्यकता नहीं विद्यासमुद्रहरिभद्रमुनीन्द्रमित्रं प्रतीत होती। सरिर्बभूव पुनरेव हि मानदेवः । २१ ये आचार्य विक्रमकी १५ वी शताब्दीके: पूर्वार्धमें मान्द्यात् प्रयातमपि योऽनघसूरिमन्त्रं लेभेऽम्बिकामुखगिरा तपसोज्जयन्ते ॥ २२ वर्भसागरजी १५ वी शताब्दीके पूर्वार्द्ध में विद्य- यही पद्य पुनः पूर्णिमागच्छकी पट्टावलीमें भी मिलता माम थे। है। देखो, पं. हरगोविन्ददासका हरिभद्रचरित्र पृ: ३॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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