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________________ अंक हरिकामद्र सूरिका समय निर्णय । करोंके चरित्रोंके साथ अंतमें भद्रबाहु, वज्रस्वामी बडे उदार थे। इनका स्वभाव सर्वथा गुणानुरागी सिद्धसेन आदि आचार्योंकी कथायें भी लिखी हुई था । जैनधर्म ऊपर अनन्य श्रद्धारखने पर, और इस है, जिनमें अंतमें हरिभद्रकी जीवनकथा भी सम्मि- धर्मके एक महान् समर्थक होने पर भी, इनका लित है। इसी तरह थोडासा हाल गणधरसार्द्ध- हृदय निष्पक्षपातपूर्ण था। सत्यका आदर करनेम शतककी सुमतिगणोकी बनाई हुई बृहत् टीकामें भी ये सदैव तत्पर रहते थे। धर्म औरतत्त्वक विचारों. उल्लिखित है। का ऊहापोह करते समय ये अपनी मध्यस्थता - इन सब ग्रंथाम लिखे हुए वर्णनोंपरसे जो निष्क- और गुणानुरागिताकी किञ्चित् भी उपेक्षा नहीं र्ष निकलता है वह यह है कि हरिभद्र पूर्वावस्थामें करते थे। जिस किसी भी धर्म या संप्रदायका जो एक बडे विद्वान् और वैदिक ब्राह्मण थे। चित्रकूट कोई भी विचार इनकी बुद्धिमें सत्य प्रतीत होता तिहास प्रसिद्ध वीरभामि चित्ताडे गढ) था उसे ये तरन्त स्वीकार कर लेते थे। केवल उनका निवास स्थान था। याकिनी महत्तरा नाम- धर्म-भेद या संप्रदाय-भेद ही के कारण ये किसी क एक विदुषी जैन आर्या (श्रमणी साध्वी ) के पर कटाक्ष नहीं करते थे-जैसे कि भारतके अन्यासमागमसे उनको जैनधर्मपर श्रद्धा हो गई थी न्य बहुतसे प्रसिद्ध आचार्यों और दार्शनिकोंने और उसी साध्वीके उपदेशानुसार उन्होंने जैनशान किये हैं। बुद्धदेव, कपिल, व्यास. पतञ्जलि, आदि प्रतिपादित-संन्यासधर्म-श्रमणव्रतका स्वीकार कर विभिन्न धर्मप्रवर्तकों और मतपोषकोंका उल्लेख लिया था। इस संन्यासावस्थामें जनसमाजको निरं- करते सयम इन्होंने उनके लिये, भगवान्, महामुनि, तर सबोध देनेके सिवा उन्होंने अपना समप्र महर्षि, इत्यादि प्रकारके बडे गौरवसूचक विशेषणोंजीवन सतत साहित्यसेवामें व्यतीत किया था । का प्रयोग किया है-जो बात हमें इस प्रकारके. धार्मिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक विषयके अने. दूसरे प्रन्थकारोंकी लेखनशैलीमें बहुत कमरष्टिकानेक उत्तमोत्तम मौलिक ग्रंथ और ग्रंथविवरण गोचर होती है। कहनेका तात्पर्य यही है किये लिखकर उन्होंने जैनसाहित्यका-और उसके द्वारा एक बडे उदारचेता साधु पुरुष थे। सत्यके उपा. समुच्चय भारतीय साहित्यका भी-बडा भारी उप- सक थे । भारतवर्षके समुचित धर्माचार्योंके पुण्यकार किया है। जैनधर्मके पवित्र पुस्तक जो आगम श्लोक इतिहासमें ये एक उच्च श्रेणिमें विराजमान कहे जाते हैं, वे प्राकृत भाषामें बने हुए होनेके का- होने योग्य संविज्ञहृदयी जैनाचार्य थे। रण विद्वानोंको और साथमै अल्पबुद्धिवाले मनु- हरिभद्रके जीवनके विषयमें उपर्युक्त थोडीसी प्योको भी अल्प उपकारी होरहे थे इस लिये उन पर प्रासंगिक बातें लिख कर, अब हम, प्रस्तुत निव सरल संस्कृत टीकाये लिख कर उन्हें सबके लिये न्धके मुख्य विषयकी विवेचना करना चाहते हैं। सुबोध बना देनेके पुण्यकार्यका प्रारंभ इन्हीं महात्माने हरिभवसरिक जीवन-वृत्तान्तके विषयमें अल्पकिया था। इनके पहले आगम ग्रंथों पर शायद सं. स्वल्प उल्लेख करनेवाले जिन ग्रंथोके नाम हमने स्कृत टीकायें नहीं लिखी गई थी। उस समय तक र तक ऊपर सूचित किये हैं, उनमें इस बातका कोई उल्लेप्राकृतभाषामय चाणये हा लिया जाता था। निदान सयासचन नहीं कि ये सरि किस समय वर्तमानमें तो इनकं पूर्वकी किसी सूत्रकी कोई . ६ हुए हैं। इस लिये, प्रस्तुत विचारविवेचनमें उन संस्कृत टीका उपलब्ध नहीं है। अस्तु । योसे हमें किसी प्रकार की साक्षात् सहायता के इनके बनाये हुए आध्यात्मिक और तात्त्विक प्र- मिलनेकी तो बिल्कुल आशा नहीं है । यदि, उन थोंकास्वाध्याय करनेसे मालूम पडता है कि,ये प्रकृ म ग्रंथोंमें जीवनवृत्तांतके साथ हरिभद्रके समयका तिसे बडे सरल, आकृतिसे बडे सौम्य, और वृत्तिसे सूचक भी कोई उल्लेख किया हुआ होता, तो उनके • १३ इस वृत्ति की रचना-समाप्ति वि. सं. १२९५ में दिये हुए वर्णनों में कुछ और विशेष महत्ता और हुई थी। विश्वसनीयता आ जाती । परंतु, वास्तवमें, उन Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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