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________________ सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र । अंक १] “ यद्यपि केचित् पण्डितम्मन्याः सूत्राण्यन्यथाकारम र्थमाचक्षते तर्कबलानुविद्धबुद्धयो वारवारेणोपयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणयामः, यत आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेणोपयोगं प्रतिपादयन्ति । " जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और सिद्धसेनगणी आदि दिवाकरजी के विचारभेदमें केवल आगमप्रामाण्यकी दलीलके सिवा और कुछ नहीं कह सके । युक्तिसे वे भी दिवाकरजीके विचार के कायल होते थे, परंतु अन्तमें यही कह कर वे छूट जाते थे कि युक्ति और तर्कले चाहे जो सिद्ध होता हो परंतु आगम-लिखित उल्लेखांके विरुद्ध-विचारको हम कभी नहीं आदर दे सकते । सिद्धसेनगणी लिखते हैं किस्वमनीषिका सिद्धान्तविरोधिनी न प्रमाणम्, अत्यभ्युपेयते । ' ...' न चान्यथा जिनवचनं कर्तुं शक्यते सुबपापीति । ' मालूम पडता है इस प्रकारकी तर्क प्रियताक कारण ही पिछले जैन साहित्य में दिवाकरजी 'तार्किक' के नामसे प्रसिद्ध रहे हैं। [बहुतसे पाठक यह नहीं जानते होंगे कि श्वेताम्बर आचार्यैके इस विशिष्ट मतभेदके बारे में दिगम्बर आचार्याका क्या मत है ? उनके लिये हम यहां पर यह नोट कर देते हैं कि, दिगम्बर साहित्यमें इस बारे में एक ही सिद्धान्त उल्लिखित है; और वह सिद्धसेन दिवाकरका सिद्धान्त है। अर्थात् दिगम्बराचार्योंको दिवाकरजी ही का मत मान्य है । दिगम्बर ग्रन्थोंमें सर्वत्र केवलज्ञानको ज्ञान और दर्शन दोनों युगपत् लिखे हुए हैं। उनमें श्वेताम्बर - आगमों के मुताबिक • जुगवं दो णत्थि ओगा ' अर्थात् एक साथ दो उपयोग नहीं होते -यह दि चार कहीं देखनेमें नहीं आता। इतना ही नहीं बल्कि 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में भट्ट अकलंकदेवने 'केवाल - श्रुत-सङ्घ-धर्म-देवावर्णवादी दर्शनमोहस्य ' (६-१२) इस सूत्र की व्याख्या में 'पिण्डाभ्यवहारजीविनः, केवलदशानिर्हरणाः, अलाहूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनाः, केवलिनः इत्यादि वचनं केवलिष्ववर्णवादः । ' ऐसा उल्लेख कर, श्वेताम्बरोंकी, केवलीको कव लाहार माननेकी जो दिगम्बर-मत-विरुद्ध दूसरी प्रसिद्ध मान्यता है, उसीकी तरह, इस क्रमोपयोग ११ वादकी मान्यताको भी, केवलज्ञानीके अवर्णवाद स्वरूप बतलाकर दर्शनमोह कर्मके बन्धका कारण बतलाया है। अकलंकदेव के इस कथन के विरुद्ध श्वेताम्बर विद्वान् सिद्धसेन गणीने इसी सूत्रकी व्याख्यामें । “दिगम्बरत्वाद्विगतत्रपाः, क्रमोपयोगभाजः ", समवसरणभूमावप्कायभूम्यारम्भानुमोदिनः, सर्वोपायनिपुणा अ प्यति दुष्करखुरपचर मार्गोपदेशिनः; इत्याद्यवर्णोद्भासनम् ।' इस प्रकार उल्लखे कर, केवलज्ञानीको क्रमशः ज्ञान दर्शन होनेवाले मत (विचार) में युक्ति-रहितता मानने या प्रतिपादन करनेवालोंके विचारको दर्शन मोहकर्मके बन्धका कारण बतलाया है !! ] सिद्धसेनसरिके लिये एक यह भी किम्वदन्ती प्रचलित है कि, इन्होंने एक दफह जैन श्रमण संघ के सामने यह विचार प्रदर्शित किया था कि, 'जैनागम ग्रंथ' जो प्राकृतभाषामें बने हुए हैं इसलिये विद्वानोंका उनके प्रति विशेष आदर नहीं होता- विदग्धगण उन्हें ग्रामीण भाषाके ग्रन्थ समझकर उनका अवलोकन नहीं करते- इस लिये यदि भ्रमण गण अनुमति दे तो मैं उन्हें संस्कृत भाषामं परिवर्तित कर देना चाहता हूँ । दिगकरजी के इन विचारों को सुनकर श्रमण-संघ एकदम चौंक ऊठा और 'मिच्छामि दुक्कडं, का उच्चारण करता हुआ, इनसे कहने लगा कि, 'महाराज, इस अकर्तव्य विचारको अपने हृदय में स्थान देकर आपने तीर्थकर, गणधर और जिन-प्रवचन की महती 'आशातना ( अवज्ञा ) की है। ऐसा कबित विचार करनेके, और श्रमण-संघ के सामने ऐसे उद्गार निकालने के कारण, जैन शास्त्रानुसार, आप ' संववाह्य' के भूईण्डकी शिक्षा पानेके अधि कारी हुए हैं।" दिवाकरजी संघके इस कथनको सुनकर चकित हो गये और अपने सरल विचारसे भी संघको इतनी अत्रीति हुई इसलिये उनको बडा खेद हुआ । संघसे तुरन्त उन्होंने क्षमा-प्रार्थना की और जो प्रायश्चित्त दिये जाने योग्य हो उसे देनेकी विज्ञप्ति की । कहा जाता है कि संघने उन्हें शास्त्रानुसार बारह वर्षतक 'बहिष्कृत' रूपमें रहनेका 'पाराचित' नामक प्रायश्चित्त दिया, जिसे दिवाकरजीने सादर स्वीकार कर संवाज्ञाका पालन किया । प्रायश्चित्तकी मर्यादा पूर्ण हो जाने पर संघने उनको पुनः 4 Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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