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________________ ९२ [भग १ जैन साहित्य संशोधक अर्थात् जे भाषामां सौथी प्रथम तेनो संक- रणमा साहाय्यभूत बनेली बधी हस्तलिखित प्रतिलता थई हती तेज भाषामा अत्यारे आपणने उप. ओमा जे जे भिन्न भिन्न लेखनपद्धतिओ मळी आलब्ध थाय छ, के पाछळथी, पेढो दरपेढाए ते ते वती हती ते अधी प्रामाणिक मानवामां आवी हती काळनी रूढ ( प्रचलित ) भाषानसार तेमा उच्चा- अने तेथी ते सघळी पद्धतिओने ए सूत्रनी नकलोरण-परिवर्तन थता थतां छक देवर्धितणीना मांसाचवी राखवामां आवी हती. आ विचार जो नवीन संस्करण वखतनी चाल भाषाना उच्चारण युक्तियुक्त जणातो होय तो, आपणे, सौथी प्राचीन पर्यंतनी भाषाथी मिश्रित थएला आजे मले छ? अने रूढिबहिष्कृत लेखनपद्धतिने आगमरचनाना आ बे विकल्पोमांनो मने तो बोजोज विकल्प स्वी- आदि समयनी अथवा तो तेना निकट समयनी करणीय लागे छे. कारण के ए आगमोनी प्राचीन उच्चारसूचक मानी शकीए. अने सौथी अर्वाचीन भावाने चाल भाषानी रूढिमा फेरववानो वहीवट लेखनशैलीने सिद्धान्तना अंतिम संस्करणना स. ठेठ देवर्धिगणी सुधी चालु रह्यो हतो. अने अते मयनी अगर तेनी नजीकना समयनी उच्चारदर्शदेवर्धिगणीना संस्करण जते वहीवटनो अंत आण्यो क मानी शकीए.'वळी सौथी प्राचीनरूपमा उपहतो, एम मानवाने आपणने कारणो मळे छे. जैन लब्ध थती जैन प्राकृत भाषाने, पाली तथा हाल, प्राकृत भाषामा स्वरूपसंगत वर्णविन्यासनो जे सेतुबन्ध विंगरेनी ( पाछला समयनी ) प्राकृत अभाव दृष्टिगोचर थाय छे तेनु कारण, जे लोकभा- साथे जो आपणे सरखावीशुं तो आपणने स्पष्ट जषामां ( Vernacular Language ) ते पवित्र णाशे के जैन प्राकृत ए पाछटनी प्रास्त करतां पाआगमो हमेशा उच्चाराई रह्या हता, ते भाषामां लोने वधारे मळती आवे छे. आ उपरथी आपणे निरंतर थतुं रहेलु क्रमिक परिवर्तन ज छे. जैन. एवा निर्णय उपर आवी शकीए छीप के कालगणसूत्रोनी सघळी प्रतिओमां एक शब्द एकज रीते नानी दृष्टिए पण जैनोना आगमो, त्यार पछीना लखेलो जोवामां आवतो नथी. आ वर्णविन्यास. समयमा थपला प्राकृत ग्रंथकारोना ग्रंथो करतां विषयक विभिन्नतानां मुख्य कारणोमांनं एक कार- दक्षिणना बौद्धसूत्रो [ना रचन ण तो ये स्वरो वञ्चे आवता असंयुक्त व्यंजननो प्रकृ. वधारे समीपता धरावे छे. तिभाव ( तदवस्थ राखवारूप ), लोप, के मृदूकर. परंतु, आपणे जैन आगमोनी रचनाना समयनी ण थवारूप छ; अने बीजं कारण बे संयुक्त व्यंज. मर्यादा, तेमां प्रयोजाएला छंदोनी मददथी, आथी नानी पूर्वना ए अने ओ ने तदवस्थ एटले कायम पण वधारे निश्चितराते आंकी शकीए तेम छाए. राखवारूप अथवा तेने क्रमथीइ अने उ ना रूपमा परिवर्तित करवा (लघुकरण ) रूप के ए तो अ. १. कोई अहीं एवी दलील कर्या करे छ के आवी शक्य ज छ के एकज शब्दना एकज समयमांक. आर्ष एटले रूढिब हैरुत लेखनपद्धतिना अस्तित्वनं कारण थी वधार शुद्ध गणावा लायक उच्चारो होई शके. मात्र संस्कृत भाषानी असर छे. परंतु जैनानु प्रारुत-भ पार्नु उदाहरण तरीके-भूत, भूयः उदग, उदय अने उअय: ज्ञान हमेशा एटलुं बधु संगीन रह्यं हतुं के जेथी तेमने पोलोभ,लोह: इत्यादि.आपणे आप्रकारनी जदीजदीले ताना आगमोने समजवा माटे संस्कृतनी सहायता लेवी ज खन पद्धतिओने ऐतिहासिक लेखनपद्धतिओमान पडती नहोती के जेथी तेनी तेना उपर असर पडे. परंतु वी जाइए. एटले के देवर्धिगणीवाटासिद्धान्तसंस्क. आधी उलटुं, जैनोना संस्कृत ग्रंथोनी प्रतिओमा प्राकृत शब्दो जेवा लखेला घणा शब्दो मळी आवे छे. उपर प्रमाणे १ हुँ एम नथी कद्देतो के कोई पण शब्दनो एक काळम मानतां पण केटलीक जोडीओ तो एवी मळी आवे छे के बे रूपो ज न होई शके बचे रूपोवाळा घण ए शब्दो जेने संस्कृतीकरणनी दृष्टिए पण समजावी शकाय तेम नथी:थया हशे. पतु प्रायः प्रत्येक शब्दना बचे त्रण त्रण रूपो उ त. दारयने बदले मळतुं दारग एवं रूप लईए. आ श. एक साथे प्रचलित रहेवामी बाबतमां मने जरूर शंका दर्नु संस्कृत प्रतिरूप 'दारक' थायछे परंतु 'दारग' एवं थतुं नथी. Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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