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________________ जैन साहित्य संशोधक ११६ धैर्यवान् थे, आदर्श कर्तव्यवान् थे, असाधारण ज्ञानवान् थे, महान् देशभक्त थे, अनुपम लोकप्रि· य थे, सर्वोतम राष्ट्रसूत्रधार थे, गंभीर राजनीतिज्ञ थे, संपूर्ण स्वार्थत्यागी थे, निष्काम कर्मयोगी थे, धुरंधर साहित्य सेवी थे, उत्तम लेखक और नि. पुण वक्ता थे; सब कुछ थे और संपूर्ण रीतिले थे। जैन साहित्य संशोधकके कार्य क्षेत्रकी विशिष्टताको लक्ष्य कर, हम यहां पर आपकी अनेकानेक शक्तियों में से केवल उस एक ही शक्तिका संक्षिप्त उलेख करते हैं जिसके कारण आप संसार में एक श्रेष्ठ विद्वान् माने गये । वह शक्ति आपकी अत्यंत सूक्ष्म संशोधक बुद्धि - गहन गवेषणा शक्ति थी। आपकी इस संशोधक बुद्धिका जर्मनी, इंग्लैंड और अमेरिका के विद्वानों तकने गौरव किया है । विद्वा नोको आपकी इस शक्तिका प्रथम परिचय सन् १८९२ - . में मिला था । उस वर्ष लण्डन नगरमें होनेवाली ' प्राच्य विदोंकी आंतरराष्ट्रीय परिषद् (The International Congress of Orienta list ) में वेदोंकी प्राचीनता के विषयमें आपने एक गहन गवेषणा और अत्यन्त अनुसन्धानपूर्ण मौलिक निबन्ध भेजा था जो फिर अगले वर्ष सन् १८९३ ) ' ओरायन ( ORION ) ' के नाम से पुस्तकरूपमें प्रकाशित किया गया था । इसपुस्तकमे आपने ज्योतिष शास्त्र के नियमानुसार नक्षत्रों की गति ऊपरसे यह बतलाया है कि, ऋग्वेदमें जो ' ओरा यन = आग्रहायण नक्षत्र संबंधी ऋचायें मिलतीं हैं उनसे उनका रचना समय कम से कम ई. स. से ४००० वर्ष पूर्व होना सिद्ध होता है । आपकी इस गवेषणाको पढ कर प्रो. मेक्षमुलर, विटनी, वेबर, बुल्हर और ब्लूमफील्ड जैसे प्रख्यात संशोधक विद्वानोंने आपकी शोधक बुद्धिकी उत्तम प्रशंसा की थी। डॉ. ब्लूमफील्डने तो आपकी इस गवेषणाको “ विज्ञान और संस्कृतके जगत् में एक हल चल मचादेनेवाली घटना " बतलाई थी और क था कि " निस्सन्देह, इस पुस्तकसे साहित्य संसारके आगामी वर्षमें खूब सनसनी फैल जायगी। इस वर्ष, इतिहासको तिलककी खोजके फलको अपनाने ही में सारा समय लगा देना होगा।" [ भाग १ 1 तिलक महाशयके इस सिद्धान्तकी, जर्मनीके विद्वान् डॉ. जेकोबीके सिद्धान्तसे अचिन्त्य समानता हो गई थी । क्यों कि डॉ. जेकोबी भी अपनी स्वतंत्र गवेषणाद्वारा वेदों का रचना समय लगभग वही स्थिर कर सके जो तिलक महाशयने किया । इससे पुरा तत्त्वज्ञोंमें आज यह सिद्धान्त तिलकजेकोबी ( Tilak - Jacobi theory ) के संयुक्त नामसे व्यवहृत होने लगा है । ऐसा ही अनुसन्धानात्मक दूसरा ग्रन्थ आपका 'वेोंमें आयका उत्तर ध्रुवनिवास ( The Arctic Home in the Vedas ) ' है । यह ग्रन्थ सन् १८९७ में जब आपको दूसरी वार कारागृहवास मिला था तब लिखा गया था । वेद, ब्राह्मण आदि संस्कृत ग्रंथ, पारसियोंके जिन्द अवेस्ता ग्रन्थ और पश्चिमय विद्वानोंके लिखे हुए भूगर्भविद्या सम्बन्धी नवीन ग्रन्थोंका सूक्ष्म अध्ययन और मनन कर आपने इस ग्रन्थकी रचना की है । इस ग्रन्थमें आपने वेद, ब्राह्मण, पुराण, अवेस्ता इत्यादि शा स्त्रोंके अनेकानेक प्रमाण देकर, यह प्रतिपादित किया है कि वेदकालीन आर्यलोग उत्तर ध्रुवके प्रदेशमें निवास करते थे। कारागृह में बैठे बैठे, इस ग्रन्थके लिखनेके लिये अपेक्षित साधनों के अध्ययन-मनकी अनुमति सरकारने आपको प्रो. मेक्षमुलरके अनुरोधसे दी थी। पीछेसे उन्हीं प्रोफेसर महोदयके विशेष परिश्रम और प्रयत्नसे सरकारने आपको असमय ही में बन्धनमुक्त भी कर दिया था। कारागृह में से निकले बाद आपने उक्त प्रो. को एक कृतज्ञतापूर्ण पत्र लिखा जिसमें अपने किये हुए इस नवीन अनुसन्धानका कितनाएक उपयुक्त सार भी लिख भेजा । इस सारको पढ कर प्रोफेसर महाशयने तिलक महोदयको लिखा था कि " कितनीएक वैदिक ऋचाओंका अर्थ आपके बतलाए मुताबिक ठीक हो सकता है; परंतु कदाचित् उनके आधारपर से निकाला हुआ सिद्धान्त भूस्तर शास्त्रके सिद्धान्तके साथ मेल नहीं खायगा, ऐसी मुझे शंका है।” खेद है कि, तिलक महाशयके इस ग्रन्थके प्रकाशित होने के पहले ही यह ग्रंथ सन् १२०३ में प्रकाशित हुआ-प्रो. मेक्षमुलरका देहान्त Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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