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________________ १०४ रथाधिरूढा दृढबन्धबन्धुराः पथि प्रचेलुः त्रिदशाचलाचलाः॥ तत्पृष्ठतः शिष्टगरिष्ठशेखरः खरांशुभास्वद् द्युतिसन्ततिस्ततः । पुराच्चचालाचलकन्दरावली र्वाद्यैः प्रकुर्वन् प्रतिशब्दमण्डिताः ॥ श्रीश्रीकशोभितपृष्ठयो लसतसुखासन क्ष्मापतिवानस्थिताः । साम्यं दधाना निबिडं बिडौजसो महेभ्यराजस्तदनु प्रतस्थिरे || तरंगरंगत्तुरगानिसत्खरै: खरैश्चलत्स्यन्दनचक्रमण्डलैः । भृशं समुत्खातमिलारजोऽमितः प्राच्छादयत्ता रनबिम्बमम्बरे ॥ तदाभुजप्रोत्कटसद्भटावलीहक्कानिनादैर्द्दयराजिहषितैः । भेरी-नफेरी-स्वरनाथिकास्थैरैः शृगालवत्काल कलिर्ननाश सः ॥ श्रीसंघसत्कैः शकटैर्भरोत्कटै जैन साहित्य संशोधक निपीडितों मूर्ध्नि स शेषपन्नगः । कष्टेन पातालतले स्थितस्तदा कुलाचलावेलुरलं च भारिताः ॥ सुखासन - स्थन्दन- राजवाहन श्रीवाद्दिनीनां वरवाजिनां नृणाम् । कश्चिद्विपश्चिद् गुणराज संघराट् संघेन संख्यामकरोन्नरोत्तमः ॥ श्रीमन्महीराजगजौ गजोधुरः काल बालाह्वय ईश्वरः रुती । श्रीवाचस्नोस्तनया नयान्विताः पंचेषु रूपाधिकरूपसम्पदः ॥ पंचाध्यमी पंचमुखाभविक्रमाः क्रमाब्जनप्रक्षितिपा भटान्विताः । पश्चात्पुरस्ताच्च सृजन्ति यत्नतः श्रीसंरक्षा पथि सत्पथस्थिताः ॥ पुरे पुरे श्रीमलिकाश्च राणकाः सोपायनाः सम्मुखमागताः समे । कुः प्रणामं गुणराज नामभृत् - संवेशितुर्भूतल प्रमौलयः ॥ किं संप्रतिभूपतिष शासनं विभासयन् जैन मखण्डशासन: । कुमारपालः किमु निर्मितामित [ भांग १ प्रभावनः पावन पुण्यभावनः ॥ किं वस्तुपालोऽत्र मनोरथान् पृथून् कृतार्थयत्रार्थजनस्य शस्यधीः । इत्थं सृजन्नूहसम्हमंगिनां धूक के संघपतिः समागमत् ॥ इन श्लोकोंका तात्पर्य यह है कि-- जब हर्ष के साम्राज्यका दान करनेवाला ऐसा दीपालिका पर्व आया तब अर्थात् चातुर्मासकी समाप्तिके समय पर -- गुणराज सेठने तीर्थयात्राके लिये खूब जबरदस्त तैयारी करनी शुरू की । उसके साथ और भी बडे बडे धनिक लोक मनोरथोंके साथ ही अपने अपने घरोंमें रथों वगैरहको सजाने लगे । तथा सुखासन, सिंहासन आदि जुदा जुदा तरहके वाहन बनाने लगे । हजारों ऊंची जातिके घोडे तैयार किये जाने लगे तथा खच्चर और ऊंट सामानसे लदे जाने लगे । यो तैयारी कर वह चतुर सेठ अनेक प्रकारकी बहुमूल्य भेंटें लेकर अपना राजकर्ता जो अहम्मद बादशाह था उसके पास गया और वे भेटे उसके सामने रख कर उसको खूब खुश किया । बादशाहने भी बदले में, अपने कबाहि (?) आदि सहचारियोंके साथ, गुणराज सेठको आदरपूर्वक किंमती सरपाव देकर उसका उचित सन्मान किया । इसके उपरांत बादशाहने सेठको संघ में ले जानेके लिये अपना निजका जो बादशाही खेमा था वह समर्पण किया और नफेरी आदि शाही बाजे भी --कि जो खास राजाओंहीके आगे बजाये जा सकते हैं- - बजानेके लिये देकर सेठका बहुमान किया । संघर्क रक्षा के लिये हजारा ही प्यादे और घोडेसवार सिपाही भी बादशाहने उसके बाथ भेजे । इस प्रकार यात्रा के लिये शाही फरमान लेकर, सकल समुदायके साथ, भव्य मुहूर्तमें, याचकगण. को इच्छित दान देते हुए, शुभ शकनपूर्वक गुणराज सेठने अपने नगरसे प्रस्थान किया । कर्णा रवाना होकर संघ वीरमगांव प Aho ! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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