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________________ ९२ " अकलंकने समंतभद्र के देवागमपर भाष्य लिखा । अतमीमांसा ग्रंथको समझाकर बतलाने वाले विद्यानं. दिको नमोस्तु | "" इन सब अवतरणों से भी प्रायः यही पाया जाता है कि समन्तभद्रका' देवागम' उनकी एक पृथक् कृति अथवा स्वतंत्र ग्रंथ है। जैन साहित्य संशोधक १२- श्री शुभचंद्राचार्यविरचित पांडवपुराणका एक पद्य इस प्रकार है: "समन्तभद्रा भद्रार्थो भातु भारतभूषणः । देवागमेन येनात्र व्यक्तो देवागमः कृतः " ॥ १५ ॥ इस पथके द्वारा ग्रंथकर्ता महाशय, स्वामी सम न्तभद्रका' भारतभूषण' आदि विशेषणोंके साथ स्मरण करते हुए, प्रकट करते हैं कि उन्होंने अपने देवागम शास्त्र) के द्वारा- (गंधहस्तिमहाभाष्य अथवा तत्वार्थसूत्रकी टीका द्वारा नहीं ) जिनेंद्र देव के आगम ( जैनागम ) को संसारमें व्यक्त कर दिया है । इससे देवागमकी स्वतंत्रता और भी स्पष्ट शब्दोंमें उद्घोषित होती है और यह पाया जाता है कि संसारमें समन्तभद्रकी विशेष प्रसिद्धका कारण भी उनका देवागम ' ग्रंथ ही हुआ है। यदि यह देवागम कोई पृथक् ग्रंथ न होकर गंधहस्ति महाभाष्यका ही एक अंश उसका केवल मंगलाचरण होता तो कोई वजह नहीं थी कि उस महान ग्रंथका कहीं नामोल्लेख न करके उसके केवल एक छोटेसे अंशका ही उल्लेख किया जाता । उस संपूर्ण ग्रंथके द्वारा तो और भी अधिकता के साथ जैनागम व्यक्त हुआ होगा फिर उसका नाम क्यों नहीं ? और क्यों आम तौरपर देवागम अथवा आप्तमीमांसाका ही नामोल्लेख पाया जाता है ? जरूर इसमें कुछ रहस्य है और वह कमसे कम देवागमकी स्वतंत्रताका समर्थक जान पडता है । 6 १३- श्रीविद्यानंदस्वामीने युक्त्यनुशासन ग्रंथकी टीका लिखते हुए सबसे पहले उसकी उत्था निकारूपसे यह वाक्य दिया है +6 श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिर/प्तमीमांसायामन्यये गव्यव च्छेदाद् व्यवस्थापितेन भगवता श्रमितार्हतान्त्यतीर्थंकर परमदेवेन मां परीक्षा किं चिकीर्षवो भवन्त इति ते पृष्ठा इव प्राहु: । " 2 [ भाग १ इसके बाद मूल ग्रंथका प्रथम पद्य उद्धृत कि या है जो इस प्रकार है: १५ की महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमा स्तुतिगोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्णदोषाश्यपः शबन्धम् ॥ १ ॥ अद्य स्मिन् काले पावस नसमये । " विद्यानंदाचार्य के इस संपूर्णकथनसे मालूम होता है कि स्वामि समन्तभद्रने आप्तमीमांसा ( देवागम ) के अनन्तर हो- उक्त ग्रंथद्वारा अर्हन्तदेवकी परीक्षा के बाद ही- युक्त्यनुशासन ' ग्रंथकी रचना की है। यदि देवागम' को गंधहस्तिमहाभाध्यका एक अंग और उसका आदिम भाग माना जाय तो युक्त्यनुशासनको भी उक्त महाभाष्यका जाता । युक्त्यनुशासन समन्तभद्रका, महावीर भगतदनन्तर अंग कहना होगा । परंतु ऐसा नहीं कहा वानकी स्तुतिको लिये हुए हितान्वेषणका उपाय प्रतिपादक एक स्वतंत्र ग्रंथ माना जाता है। नीचे के कुछ पद्यों और उनकी कथनशैली से भी प्रायः ऐसा ही आशय ध्वनित होता है : “ नरागान्नः स्तोत्र भवति भवपाशच्छिदि सुनो, न चान्येषु द्वेष दपगुणकथाभ्यासखलता । किम् न्यायान्यायप्रकृतगुणदोषज्ञमनसा, हितान्त्रेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः" ।। ६४ ।। - यक्त्यनुशासन | श्रीमद्वीजिनेश्वराम लगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणैः साक्षात्स्वामिसमंतभद्र गुरुभिस्तत्त्वं समीक्ष्याखिलम् । प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमागी नुगेविद्यानंदर तमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपैः || -- टी० विद्यानन्दस्वामी । 66 4. जीवसिद्धिविवाह कृतयुक्त्यनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृंभते || 23 -- - हरिवंशे जिनसेनः । ऐसी हालतम 'देवागम ' को भी युक्त्यनुशासनके सदृश गंधहस्तिमहाभाष्यका कोई अंग न मान कर एक स्वतंत्र ग्रंथ कहना चाहिये । 6 १४ - श्री धर्मभूषणयतिविरचित न्यायदीपका' में, सर्वज्ञकी सिद्धि करते हुए, आप्तमी - Aho ! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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